पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३०

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अनन्तजगइर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ११५११) नहीं कर सकता, जब आत्मसुख प्राप्त होवैगा, तब त्यागि देवैगी, जैसे जिस पुरुषको जबलग पास नहीं प्राप्त भया; तबलग अपर धनको त्यागि नहीं सकता, जब पारस प्राप्त भया, तब तुच्छ धनका त्याग करता है, बहुारे यत्न नहीं करता, तैसे जब इसको आत्मानंद प्राप्त होता है, तब विषयके सुखका त्याग करता हैं, अरु पानेका यत्न नहीं करता। हे रामजी ! आँवरा तबलग अपर स्थानविषे भ्रमता है, जबलगकमलकी पंक्तिको नहीं प्राप्त भया, जब पंक्तिको प्राप्त भया, तब अपर स्थानको त्याग देता है, जैसे चित्तशक्ति जब आत्मपदविषे लीन भई तब किसी पदार्थकी इच्छा नहीं करती, निर्विकल्प पदको प्राप्त होती है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे पुरुषप्रकृतिविचारो नाम शताधिकाटुनवतितमः सर्गः ॥ १९८॥ । शताधिकनवनवतितमः सर्गः १९९. | अनन्तजगद्वर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! अब पूर्वका प्रसंग बहुरि सुन जब काली नृत्यकै निर्वाण हो गई, तब शिव एकलाही रहा, एक रुद्रही मुझको दृष्ट आवै, अरु दो खंड आकाशके दृष्ट आवें, एक अधोभाग, एक ऊर्श्वभाग, अपर कछु दृष्ट न आवै, तब रुद्रने नेत्रको पसारिकै दोनों खंड देखे, जैसे सूर्य जगत्को देखता है, तैसे देखकर प्राणको अंतर बँचत भया, तब ऊर्ध्व अध दोनों खेड इकड़े हो गए, तब ब्रह्मांडको अंतर्मुख पाय लिया, एक शिवही रहगया, अपर कछु दृष्ट न आवै ॥ हे रामजी। जब एक क्षण व्यतीत भया तब रुद्र बड़े आकारको धरे हुए सो ब्रह्मांडको भी लंच गया, सो एछ वृक्षके समान हो गया, बहुरि अंगुष्ठमात्र शरीर हो गया बहुरि एक क्षणविषे सूक्ष्म अणु जैसा हो गया, बडारे रेतीके कणकेते भी सूक्ष्म हो गया, बहुर, नेत्रकारि दृष्ट न आवै, दिव्य दृष्टिकारे मैं देखता रहा, बहुरि वह भी नष्ट हो गया, केवल चिदाकाशही शेष रहा, अपर दूसरी वस्तु कछु भासै नहीं, जैसे वर्षाकालके