पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४०

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अंतवाहकचितुवर्णन--निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५२१) देखौं तब सर्व आत्माही भान होवे, अरु जब अंतवाहक दृष्टिकरि देखौं तब आपको विरारूप जानौं, जो सर्व जगविषे मैंही पसर रहा हौं, सर्व पदार्थ मेरे अंग हुए, तेजवाविषे तेज मैं हुआ, क्रोधवाचविषे क्रोध भी मैं हुआ, अरु यतीविषे यती मैं हुआ, अरु अजित हुआ, सर्व ओर मेरीही जय है, काहेते कि जय तिसकी होती है, जिसविषे बल अरु तेज होता है, सो बल मैं हौं, ओज मैं हौं, ताते मेरी जय है । हे रामजी । स्वर्ण अरु रत्नमणिविषे प्रकाश हुआ, अपर जो रूप है सो मैं हुआ। राम उवाच ।। हे भगवन् ! इसप्रकार जो तुम जगतकी क्रियाको अनुभव करने लगे, जलरूप होकार अग्निको बुझाने लगे, अग्नि होकर जलको जलाने लगे, इत्यादिक क्रिया जो तुम्हारे ऊपर होती रही, इष्ट अनिष्ट सो तिसका सुखदुःखकार अनुभव किया, अथवान किया, सो मेरे बोधके निमित्त कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जैसे चेतन पुरुष स्वप्नविषे पर्वत वृक्ष देह इंद्रियां नानाप्रकारके जड पदार्थ देखते । हैं, सो उसविषे तौ नहीं; केवल अनुभवरूप है, परंतु निद्रादोषकार वह द्वैतकी नाईं स्वप्नसृष्टिको जानता हैं, तिसका रागद्वेष अपनेविषे मानता है, अरु अपर कछु है नहीं, द्रष्टाही दृश्यरूप होकार स्थित होता है, परंतु निद्रादोषकार नहीं जान सकता, जब जागता है तब सब स्वप्न सृष्टिको अपना आपही जानता है, वैसे यह जगत् अपने स्वरूपविषे नहीं, जब बोध स्वरूपविषे जागैगा तब पदार्थभावना जाती रहेगी सब जगत् बोधस्वरूप भासैगा ॥ हे रामजी । जिस पुरुषकी देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित अखंड सत्ता उदय भई है, तिसको ज्ञानी कहते हैं, जब यह पुरुष परमात्मा अवलोकन करता है, तब सब जगत् आत्मस्वरूप भासता हैं, जिस पुरुषको स्वप्नसृष्टिविषे पूर्वका स्वरूप विस्मरण नहीं भया तिसको अंतवाहक कहते हैं, तिसको पत्थरके प्रवेश करनेविषे भी खेद नहीं होता, अरु जल अग्निविषे प्रवेश करनेकर भी खेद नहीं होता ।। हे रामजी | मैं जो आकाशविषे उडता फिरता हौ, अरु आकाशको भी लंधिकार ब्रह्मांडके खपर ऊपर जाय फिरा हौं सो अंतवाहक करिकै फिरा हौं; जिसको अंतवाहक शरीर प्राप्त