पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

  • {१५२६ ) योगवासिष्ठ । चला जावै, जैसे मेधते बँदें गिरती हैं, सो ठहरती नहीं, जैसे आकाशते वटा गिरे तैसे वह चला जावै, सप्तद्वीपके पार दशसहस्र योजन स्वर्णकी धरती है, तिसके ऊपर आनि पड़ा जैसे आकाशते रुईका फोहा गिरे। तैसे सुखेन आनि पडा, अरु उसीप्रकार पद्मासन बाँधे हुए शीश श्रीवा उसीप्रकार सम ठहरे रहे. काहेते कि, उसके शीश ग्रीवा ऊर्ध्वको रहे । हे रामजी ! शरीर हलता चलता प्राणकार हैं, जब प्राण ठहर जाते हैं, तब शरीर हलता चलता नहीं, इसकारणते शरीर उसका समही रहा, जैसे कुटीविषे बैठा था, तिसी प्रकार आसनकारि पृथ्वीऊपर आनि पडा तब मेरे मनविषे आया कि इसके साथ कछु चर्चा भी कीन्हीं चाहिये, परंतु यह तौ समाधिविषे स्थित है, किसप्रकार इसको जगावों हे रामजी ! ऐसे विचार कारकै मैं मेघ होकार वर्षा करने लगा, अरु बड़ा शब्द करने लगा, जिस शब्दकार पहाड फूटने लगे, तिस शब्द अरु वर्षाकरके भी वह न जागा, तब मैं गड़ा होकार तिसके ऊपर वर्षी करने लगा, जैसे पत्थरकी वर्षा होती है, जब ऐसी व करी तब वह नेत्र खोलकर देखने लगा जैसे पर्वतपर मोर मेघको देखने लगे, तब मैं वपुको त्यागिकार उसके आगे आय स्थित भया, तब उसने समाधि खोली, अरु प्राण इंद्रियां अपने स्थान विषे आये ॥ हे रामजी ! तब मुझको अपने अग्र देखत भया, तब मैं अद्वैतभावको त्यागिकारि बोलत भया । हे साधो ! तू कौन है, अरु कहाँ स्थित हैं, अरु क्या करता था, अरु किसनिमित्त कुटविषे स्थित था । सिद्ध उवाच॥ है मुनीश्वर । मैं अपने प्रकृतभावविषे स्थित हौं, अरु सब कछु कहौंगा, परंतु काहली मत कर, मैं स्मरण करकै कहता हौं । हे रामजी ! मुझको इसप्रकार कहकर स्मरण करने लगा, बहुरि स्मरण कारकै कहत भया ॥ हे ब्राह्मण ! वसिष्ठजी ! मुझपर क्षमा करनी, संतका शांत स्वभाव है, मेरे पासते तुम्हारी बड़ी अवज्ञा हुई है, परंतु तुम क्षमा करहु, मेरा तुमको नमस्कार है॥ हे रामजी ! इसप्रकार नमस्कार कारकै निर्मल आनंदके उपजावनेहारे वचन कहत भया, हे मुनीश्वर । यह संसाररूपी नदी है, अरु इसका बडा प्रवाह है सो कदाचित सूखता नहीं, अरु चित्तरूप समुद्रूते प्रवाह निकलता है, जन्ममरण दोनों इसके किनारे