पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४६

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आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (.३५२७) हैं, रागद्वेषरूपी इसविषे तरंग हैं, अरु भोगकी तृष्णा इसविषे चक्र फिरता है, तिसविषे मैं बडा दुःख पाया है ॥ हे मुनीश्वर। अपने सुखके निमित्त देवके स्थानोंविषे भी गया हौं, अरु दिव्य भोग भोगे हैं, जो स्पर्श आदिक भोग हैं, सो सब मैं भोगे हैं, परंतु शांति नहीं सुझको प्राप्त : भई, जिस सुखको मैं चाहता था, सो न पाया सो सुन, जैसे पपीहा मेघकी बूंदको चाहता है, अरु मरुस्थलकी भूमिकाविषे उसको शांति नहीं होती, तैसे सुझको विषयके सुखविषे शांति प्राप्त भई नहीं ॥ है। मुनीश्वर ! इस जगत्को असार जानिकरि मेरा चित्त विरक्त हुआ है कि, एता काल मैं भोग भोगे, परंतु मुझको शांति न प्राप्त भई, असत् जानकार मैं फिरा, अरु विचार किया जो सार होवै तिसविषे स्थित भया होऊ तब मैं जाना कि सार अपना अनुभवरूप ज्ञान संवित है, ऐसे जानकार मैं तिसविषे स्थित भया हौं । हे मुनीश्वर । जेते कछ विषय हैं, सो विषरूप हैं, विषके पान कियेते भी मृतक होता है, जैसे स्त्री धन आदिक सुख हैं, सो मोह अरु दुःखके देनेहारे हैं, ऐसा कौन पुरुष है, जो इनविषे आया सावधान रहता है, यह स्वरूपते नष्ट करनेहारे हैं । हे मुनीश्वर ! देहरूपी एक नदी है, तिरविर्षे बुद्धिरूपी एक मच्छी रहती हैं, सो जब शिर बाहर निकासती हैं, अर्थ यह कि जो इच्छा करती है, तब भोगरूपी बगुला इसको खा जाता है, अर्थ यह कि आत्ममार्गते शून्य करता है, अरु यह जो भोगरूपी चोर हैं, जब इनका संग यह करता है तब इसको लूट लेते हैं, अर्थ यह कि, आत्मज्ञानते शून्य करते हैं, जब आत्मज्ञानते शून्य हुआ तब जन्मका अंत नहीं आता, अनेक शरीरको धारता है, जैसे चक्रके ऊपर चढ़ी हुई मृत्तिका अनेक बासनके आकार धारती है, तैसे आत्मज्ञानते रहित अनेक शरीरको धारता है, सो अब मैं जागा हौं, मुझको अब लूट नहीं सकते ॥ है। मुनीश्वर ! भोगरूपी बड़े नाग हैं, अपर जो नाग हैं, तिनके दंशते शरीर मृतक होते हैं, अरु विषयरूपी सपके फूत्कारेकर मृतक होता है, अर्थ यह कि, इच्छा करनेकार आत्मपदते शून्य होता है, जब इसको विषयकी इच्छासाथ संबंध होता हैं, तब इसका क्षणक्षणविषे निरादर