पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४८

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आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६.(१५२९) चित् नहीं होती,जो आत्मपते विमुख,सो विषयकीओर धावते, अरु जो आत्मपदविषे स्थित हैं, सो विषयकी ओर नहीं दौडते,जैसेसमुद्रविषे तरंग उपजिकरि नष्ट होते हैं,जैसे नदीका वेग समुद्रकी ओर गमन करता है, अरु पत्थरकी शिला गमन नहीं करती तैसे भोगरूपी समुद्रकीओर अज्ञानरूपी नदी गमन करतीहै, ज्ञानीरूपी पत्थरकी शिला नहीं गमन करती ।। हे मुनीश्वर ! कमलविषे सुगंधि तवलग होती है, जबलग सर्पके मुखका वायु नहीं लगा, तैसे बुद्धिविषे तबलग विचार है, जबलग चित्तरूपी सर्पके भोगइच्छारूपी वायु नहीं लगा, जब लगता हैं, तब विचार रूपी सुगधिको ले जातीहै, अरु विषरूपीतृष्णाको छोड़ि जातीहै अरु बाण निसानकी ओर तब धावता है, जब धनुष्य अरु चिलेको त्यागता है, त्यागेते बार नहीं मिलता, तैसे आत्मारूपी चिलेते जब चित्तरूपी बाण छूटता है, तब भोगरूपी निसानकी ओर धावता है, जब जाताहै, तब फेरि आना कठिनहोता; अर्थ यह कि, अंतर्मुख होना कठिन होता है ।। हे मुनीश्वर ! यह आश्चर्य है, जो पदार्थ सुखदायक नहीं, तिनकी ओर यह बडा यत्न करता है, तो भी सिद्ध नहीं होते, अरु जो अयत्रसिद्ध आत्मपद है, तिसको त्यागता है, जिनको यह सुख जानता है,सो सब दुःखके स्थान हैं, जिस अपने होनेको यह भला जानता है, सो अनर्थका कारण है, जिस देहको यह सुखरूप जानताहैं, सो सर्व रोगका मूल है, जिनको यह भोग जानता है, इसको दुःख देनेहारे परमरोग हैं, जिनको यह सत् जानता है, सो सब मिथ्या हैं, जिनको यह स्थिर जानता हैं, सो स्थिर नहीं, चलरूप हैं, जिनको यह रस जानता है, सो सब विरसहैं, जिनको बांधव जानताहै, सो सब अबांधव हैं, दृढबंधनरूप हैं, अरु जिसको यह सुख देनेहारी स्त्री जानता सो सर्पिणी है, परम विपके देनेहारी है, तिसका मृत्यु होता है, बहुरि नहीं जीवता, अर्थ यह कि, आत्मपदविषे स्थित नहीं होता ॥ हे मुनीश्वर। मैं परम आपदाको कारण देहको जानता हौं, इसके निवृत्त हुए परमपदको प्राप्त होता है, जिस पुत्र धन आदिकको यह संपदा जानता हैं, सो परम दुःखरूप आपदा हैं, इनविषे सुख कदाचित् नहीं, यह श्रवणकार वार्ता मैं नहीं