पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४९

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१.१५३०) योगवासिष्ठ) कहता, देखिकर विचार किया है, विचार कारकै अनुभव किया है, अनुभव कारकै कहा है कि, यह संसार मायामात्र हैं, अरु बडे बडे स्थानोंविषे भी मैं गया हौं, परंतु सार पदार्थ मुझको कोऊ दृष्टि नहीं आया, स्वर्गविषे नंदनवनते आदि काष्ठरूपही दृष्टि आय, अरु पृथ्वीविषे आयकर देखा तौ पंचभूतही दृष्टि आयेहैं,अरु शरीविषे रक्त माँस हड मूत्र आदिक दृष्ट आये हैं,ताते देखिकर मैं तिनको धिक्कार करता हौं, जो ऐसे शरीरविषे अप्रत्यय करते हैं, इनकी आयुर्बल ऐसी है, जैसे दोनों हाथविषे जल लीजिये सो चला जाता हैं, ठहरता नहीं,अरु जैसे जलविषेतरंग बुद्दे उपजकर नष्ट होतेहैं, जैसे बिजलीकाचमत्कार होकार नष्ट हो जाता है, तैसे यह शरीर नाशवंत है, अरु जो ऐसे शरीरको पायकरि सुखकी तृष्णा करते हैं, सो महामूर्ख हैं बालक अवस्था तरंगकी नई नष्ट हो जाती है, यौवन अवस्था बिजलीके चमत्कारवत् छपन होती जाती है, वृद्ध अवस्थाविषे केश श्वेत हो जातेहैं, दंत घसिकार गिर पड़ते हैं, जैसे नीचेस्थानविषे जल आनि स्थित होताहै, तैसे सब रोग वृद्ध अवस्थाविषे आनि स्थित होते हैं,-अरु तृष्णा दिनदिन बढ़ती जाती॥ हे मुनीश्वर | सब पदार्थ जर्जरीभूत हो जाते हैं अरु तृष्णा ज्वान होती है, जैसे वसंतऋतुकी मंजरी बढती जाती है, अरु जो सुख भोग प्राप्त होकार बिछर जाते हैं, तिनका दुःखहोताहैं ॥ हे मुनीश्वर ! इसप्रकार इनको असत् जानकर मैं स्वरूपविषे स्थित भया हौं, जब पांचों इंद्रियोंके इष्टविषे बड़ी उत्तम मूर्ति धारिकै आनि स्थितहोवै तौ भी हमको खैचि नहीं सकते, जैसे मूर्तिकी लिखी कमलिनी भंवरेको खेंच नहीं सकती, तैसे हम सारखेको विषय चलाये नहीं सकते ॥ हे मुनीश्वर । तुम्हारा शरीर मैं अवज्ञाकार डारि दिया है, विचार कारकै नहीं डारा, जो ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक त्रिकालज्ञ हैं, तो भी इस चर्मदृष्टि कार नहीं जान सकते, जब विचारकार देखते हैं, तब जानते हैं, इस कारणते विचारविना मैं तुम्हारा शरीर डारि दिया है, अब तुम क्षमा करौ, विचार करिकै भूत भविष्य वर्तमानको जानता है, अरु इन नेत्र