पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५४

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अन्तरौपाख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५३५) अहंप्रत्ययकारकै तौ संकल्परूप है, अपर दूसरी वस्तु सत्य कछु नहीं, आत्माही है, वास्तवते न जगत्की आदि है, न मध्य है, न अंत है, न जगत्का होना है, न अनहोना है, आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है ॥ हे रामजी ! सो सर्वात्मा है, तौ रागद्वेष किसका होवे, सब अपना आपही हैं, अपना आप जो आत्मतत्त्व हैं, तिसका किंचन संवेदन फुरणे कारकै जगरूप होके स्थित भया है, जैसे किसी पुरुषने मनोराज्य कारकै एक स्थान रचा, जब उसविषे दृढभावना हुई, तब अधिभूत भासने लगजाता है, तैसे यह जगत् भी ब्रह्माका संकल्प है, चंद्रमा सूर्य अग्नि रुद्र वरुण कुबेर आदिक सब संकल्परूप हैं संकल्पकी दृढताकारकै अधिभूत पडे भासते हैं ॥ हे रामजी । आत्मरूपी एक ताल है, तिसविषे चेतनरूपी जल हैं, तिसविषे फुरणेरूपी चिकड़ - है, तिसविष चौदह प्रकारके भूतजात दुर्दुर रहते हैं, सो संकल्प मात्र हैं ॥ हे रामजी ! आकाशविषे एक आकाश क्षत्र हैं, तिसविषे शिला उत्पन्न होती है, स्वर्गलोक देवता बडी शिला है, एक तिनविषे उज्ज्वल शिला है सो ज्ञानवान् हैं, मध्यम शिला मनुष्यलोक है, तिर्यक् आदिक योनी नीच शिला हैं, सो सबही निर्बीज हैं, अर्थ यह कि कारणते रहित हैं, आत्मा अद्वैत सदा अपने आपविषे स्थित है, कछु उत्पन्न नहीं भया, परंतु भ्रांतिकारकै भिन्न भिन्न पडा भासता हैं, जैसे फेन बुदबुदे तरंग सब जलरूप हैं, तैसे यह जगत् सय आत्मरूप है, अरु जैसे स्वप्नसृष्टि अकारणरूप होती हैं, जैसे संकल्प, सृष्टि कारणविना होती है, तैसे यह जगत् कारणविना संकल्पते उत्पन्न हुआ है, जैसे ब्रह्मादिक जगद उदय हुआ है, वैसे पिशाच भी उदय हुए हैं ॥ हे रामजी ! जैसा किंचन आत्माविषे होता है, तैसा होकार भासना है, वास्तवते पृथिव्यादिक तत्त्व कहूं नहीं, न कहूं ब्रह्मा उपजा है, न कोऊ जगत् उपजा है, सब भ्रममात्र है, जेते कछु वपु भासते हैं, सो सब निर्वपु, चेतनता कारकै फुरेहैं, सब जीवका आदि अंतवाहक • शरीर है, जैसे ब्रह्माका अंतवाहक शरीर था, तैसे सर्व जीवका अंतवाहक । शरीर होता है, परंतु संकल्पकी हृढता कारकै अधिभूत हो भासता है,