पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५९

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( १५४०) योगवासिष्ठ आत्मसत्ता अरु जगविषे भेद कछु नहीं, जैसे स्वर्ण अरु भूषणविषे भेद कछु नहीं, तैसे ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, ब्रह्मही चेतनताकारकै जगतरूप हो भासता है, जैसे स्वप्नविषे अपनेही अनुभवते वृथा हो भासते हैं, सो इतर कछु हुए नहीं, अनुभवते जैसे समुद्र अरु तरंगविषे भेद कछु नहीं, तैसे ब्रह्म अरु जगत् अरु अनुभव तीनोंविषे भेद कछु नहीं, असम्यक् दृष्टिकार भेद भासता है, सम्यक् इष्टिकारि भेद को नहीं ॥ हे रामजी ! आत्मसत्ताविषे प्रथम आभास कुरा है, सो ब्रह्मरूप होकरि स्थित भया है, सो ब्रह्मा चिदाकाशरूप है, सोई ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, उसी ब्रह्मसत्ताने अपने भावको नहीं त्यागा, अरु ब्रह्मरूप होकार स्थित भई है, बहार तिसने जगत् रचा है, सो जगत् भी आकाशरूप है, वास्तवते न जगत् उपजा है, न ब्रह्मा उपजा है, न स्वप्न हुआ है, परमार्थसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित हैं, सो शुद्ध अनंत अविनाशी है, अचेत चिन्मात्र है, अरु जगत् भी वही स्वरूप है । हे रामजी ! मैं चिदाकाशरूप हौं, न मेरे साथ कोङ आकार है, न मैं कदाचित उपजा हौं, न मैं कदाचित् मृतक होता हौं, नित्य शुद्ध अजर अमर सदा अपने स्वभावविषे स्थित हौं, अनेक विकारविषे भी एकरस हौं, जैसे स्वप्नविषे बडे क्षोभ होते हैं, तौभी जाग्रत् वपुको स्पर्श नहीं करते, काहेते जो उसविषे कछु हुए नहीं, आभासमात्र है, तैसे जग की उत्पत्ति प्रलयादिक क्षोभविषे आत्मसत्ताको स्पर्श नहीं, अर्थ यह कि क्षोभते रहित सदा अनुभवरूप है, जिस पुरुषने ऐसे अनुभवको नहीं पिछाना, जो सब कुछ जिसकरि सिद्ध होता है, अरु तिसको छुपाया है, सो महामूर्ख है, वह आत्महत्यारा है,वह महाआपदाके समुद्रविषे डूबैगा, अरु जिसको अपने स्वरूपविषे अहंप्रत्यय हुई है, तिसको मानसी दुःख कदाचित नहीं स्पर्श करता जैसे पर्वतको चुहा नहीं चूर्ण करिसकता तैसे उसको दुःख नहीं स्पर्शकरता, अरु जिसको आत्माविषे अहंप्रत्यय नहीं, तिसको शांति प्राप्त नहीं होती,जैसे वायु विरोलेविषे तृण उडाहुआ स्थिर नहीं होता, तैसे देहाभिमानीको शांति कदाचित् नहीं प्राप्त होती, अपने शुद्ध स्वरूपकोत्यागिकार देहसाथ आपको मिला हुआ जानता है।सो क्या