पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८१

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११५६२) योगवासिष्ठ । आश्रय करता है, सर्वदा अपने आप स्वभावविषे स्थित होता है, ऐसे निश्चयको पायकर आश्चर्यवान होता है, कहता है कि, बड़ा आश्चर्य है, सदा अपना आप स्वरूप है, तिसको मैं विस्मरण करिकै एता काल भ्रमता रहा हौं, अब मुझको शांति प्राप्त भई है, अरु जगत्को देखिकै वह हँसता है, काहेते कि यह जगत् अनायासरूप है, अपनीही संविदविर्षे स्थित है, जैसे आरसीविषे प्रतिबिंब स्थित होता है, तैसे अपनी संवित्विषे जगत् स्थित हैं, तिसको वह द्वैत जानते हैं, अरु रागद्वेषकार जलते हैं, ऐसे अज्ञानीको देखिकर हँसता है, अरु व्यवहार करता भी हँसता है, जैसे किसीने स्वप्नविषे हाथमें स्वर्ण दिया अरु देकर बहुरि लिया, अरु इसने उसको स्वप्नजाना, तब चेष्टा करता है, परंतु हँसता है, कहता है कि, यह मेराही स्वरूप है, तैसे ज्ञानी व्यवहार करता भी अपने निश्चयविषे हँसता है, अरु जैसे किसी ग्रामको अग्नि लगती है, तिस गांवते निकसिकार एक पुरुष पर्वतपर जाय बैठे,तब जलतेको देखिकर हँसता है तैसे ज्ञानवान् पुरुष भी संसाररूपी नगर जलतेसों निकसकर आत्मरूपी पर्वतपर जाय बैठा है, सो अज्ञानीको दुग्ध होता देखिकर हँसता है,जो आप अशोक होकर उनको सशोक देखता है । हे रामजी! जब ज्ञानवान् बोधदृष्टिकारे देखता है,तब अद्वैत सत्ता भासती हैं, अरु जब अंतवाहकविषे स्थित होकार देखता है, तब जैसे स्थित होते हैं जैसे उनको देखता है, आपको शांतरूप देखता है, अर्थ यह कि आत्मतत्त्व परमानंदस्वरूप हैं, तिसते इतर जेते कछु पदार्थ हैं, सो सब दोषरूप हैं, सिद्धताते आदि लेकार जेती कछु क्रिया हैं, सो संसारका कारण हैं, जैसे समुद्रविषे कई तरंग बड़े होते हैं, कई छोटे होते हैं, परंतु समुद्रहीविषे हैं, जिस तरंगका आश्रय करैगा, सो सिद्धताको प्राप्त होवैगा, हलने डोलनेकहनेते मुक्त होवैगा, तैसे सिद्धता आदिक जो क्रिया हैं,सो कहूं बड़ा ऐश्वर्य है,कहूँछोटा ऐश्वर्य है, परंतु संसारहीविषे है, जो पुरुष इस क्रियाके त्यागकर अंतर्मुख होवैगा, सो संसाररूपी समुद्रको त्यागिकार आत्मरूपी पारको प्राप्त होवैगः ॥ हे रामजी ! जिस पुरुषको जिस पदार्थको अभ्यास होता है सोई तिसको प्राप्त होता है, जैसे पाषाणको नित्यप्रति घसावते रहिये