पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९९

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(१५८० ) योगवासिष्ठ । वान् पुरुष हैं, इंद्रियोंकरि देखता सुनता ग्रहण करता भी निर्वासनिक हो जाता है, अरु जगत्की ओरते घन सुषुप्ति होता है । हे रामजी ! जिसका मन निर्वासनिक शांत भया है, सो बोलता चालता खाता पीता भी पाषाणवत मौन हो जाता है, ताते यह जगत् कछु उत्पन्न नहीं भया, जैसे मृगतृष्णाकी नदी अणहोती भासती है, जैसे भ्रमकारकै आकाशविषे दूसरा चंद्रमा भासता है, तैसे मनके भ्रमकारकै आत्माविषे जगत् भासता है, आदिकारणते कछु उत्पन्न नहीं भया, जिसका आदिकारण नहीं पाइये सो कार्य भी असद जानिये, ताते सब जगत् कारणविनाही भासता है, उपजा कछु नहीं ॥ हे रामजी ! जो पदार्थ कारणविना - भासता है, अरु जिसविषे भासता है, सो अधिष्ठानसत्ता है, अधिष्ठानविपे भासा, तिसको भी वह रूप जानिये, अरु जो अधिष्ठानते व्यतिरैक भासै सो भ्रममा जानिये, जैसे स्वप्नविषे इंद्रियार्दिक पदार्थ भासि आते हैं, तिसविषे दृश्य दर्शन सब मिथ्या है, हुआ कछु नहीं, तैसे यह जागृत जगत् भी मिथ्या है, न कछु उपजा हैं, न स्थित भया है, न आगे होना है, न नाश होना है, जो उपजाही नहीं तौ नाश कैसे होवे, न कोऊ द्रष्टा है, न दर्शन है, न हश्य हैं, केवल चिन्मात्रसत्ता अपने आपविषे. स्थित है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह द्रष्टा दर्शन दृश्य क्या है, अरु कैसे भासता है, यह आगे भी कहा है, अरु बहुरि भी कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! यह दृश्य सब अदृश्यरूप है, कारणरहित दृश्य हो भासती है, द्रष्टा दर्शन दृश्य जेता कछु जगत् विस्तारसहित भासता है, सो आदि स्वरूपते सब परात्मस्वरूप है, जैसे स्वप्नविषे आकाशका वन भासै; अरु अपर पदार्थ भासै सो सब चिदाकाशरूप हैं, तैसे यह जगत भी चिन्मात्ररूप है, कारणकार्यभाव कहूं नहीं, जैसे वायु स्पंदरूप होता है, तब भासता है, निस्पंद हुए नहीं भासता, तैसे आत्माविषे चित्त फुरता है, तब आत्मसत्ता जगरूप हो भासती है, सो क्या वस्तु है, वही आत्मसत्तारूप भावविषे भाव है, जैसे आकाशविषेशून्यता है, तैसे आत्माविषे जगत् आत्मरूप है, ताते कछु भासता है, सो चेतनका आभास प्रकाश है, परमार्थसत्ता केवल अपने आपविषे स्थित है अरु