पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०२

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विपश्चितसमुद्रप्राप्तिवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५८३) द्विशताधिकाष्टादशः सर्गः २१८. विपश्चितसमुद्रप्राप्तिवर्णनम् ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हौ जगत् अविद्यमान है, अरु अज्ञानकरिकै स्वप्नकी नई सत् भासता है, विद्यमान भी स्वप्ननगर शून्यरूप है, तैसे यह जगत् अज्ञानरूप है, सो अज्ञान क्या है, अरु केते कालकी अविद्या हुई है, अरु किसको है, अरु इसका प्रमाण क्या है, सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो कछु तुझको जगत् दृष्ट अता है, सो सब अविद्या है, सो अविद्या अनंत है, देश अरु कालकारे इसका अंत कदाचित नहीं होता, ताते अनंत है, जिसको अपने वास्तवस्वरूपका अज्ञान है, तिसको सत्य दिखाई देता है, इसके ऊपर एक इतिहास है सो सुन ॥ हे रामजी ! आत्मरूप चिदाकाश है तिस चिदाकाशके अणुविषे अनंत ब्रह्मांड स्थित हैं, तिनविषे एक ब्रह्मांड इसी जैसा है, तिस ब्रह्मांडके जगविषे तुरमत नाम देश है, तिसका राजा विपश्चित था, सो एकसमय अपनीसभाविषे बैठा था, अरु चारों दिशा उनकी सेना है, अरु बडा तेजवान् अरु अग्निदेवताको पूजता था,अपर किसी देवताको पूजता न था, अग्निहीको देवता जानकार पूजता था, अरु बडी लक्ष्मीकार शोभता था, अरु बहुत गुणकरि संपन्न था, अरु बडे ऐश्वर्यकार संपन्न था.एक कालमें समाविषे बैठा था कि पूर्व दिशाकी ओरते हरकारा आया, अरु कहत भया । हे भगवन् ! तुम्हारा जो मंडलेश्वर पूर्व दिशाका था, सोजराकर मृतक भया है, सो कहां गया, मानौं यमको जीतने गया है, ताते पूर्व दिशाकी रक्षा करौ, वहां अपर मंडलेश्वर आता है ॥ हे रामजी । इसप्रकार वह कहताही था कि अपर हरकारा शीघ्रतासों आया, अरु कहत भयो । हे भगवन् ! तुमने जो पश्चिमदिशाका मंडलेश्वर किया था, सो तपकर मृतक भया है, अरु तहां एक अपर मंडलेश्वर आता है, ताते वहाँकी रक्षा करौ ॥ हे रामजी । इसप्रकार दूसरा हरकारा कहता था, कि अपर हरकारा आया, अरु कद्दत भया ॥ हे भगवन् । दक्षिण दिशाका मंडलेश्वर पूर्व पश्चिमकी