पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२४

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विपश्चितशरीरप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६०५) हे रामजी! एक तो निर्वाण हुआ था, अरु दूसरा ब्रह्मांडको लंधता गया, लंचता लंघता एक ब्रह्मांडविषे गया, तब वहां उसको संतका संग प्राप्त भया, तिनकी संगतिकार तिसको ज्ञान प्राप्त हुआ, ज्ञानको पायकार वह भी निर्वाण हो गया, अरु एक अलग दूर फिरता है, अरु एक यहां पहाड़की कंदराविषे मृग होकार विचरता है ॥ हे रामजी । यह जगत् आत्माका आभास है, जैसे सूर्यकी किरणोंविषे जल भासत है; जबलग किरणें हैं, तबलग जलाभास निवृत्त नहीं होता, तैसे जबलग आत्मसत्ता है, तबलेग जगतका चमत्कार निवृत्त नहीं होता, आत्माके जाननेते जग सत्ता नहीं रहती जैसे किरणोंके जाननेते जलाभास नहीं रहता, जो भासता है तो भी किरणोंहीकी सत्ता भासती है, तैसे आत्माके जाननेते आत्माकी सत्ताही भासती है, भिन्न जगतकी सत्ता नहीं भासती ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । विपश्चित एकही था, एकही संविविष भिन्न भिन्न, वासना कैसे हुई है। अरु मुक्त एक हो गया, एक मृग होकार फिरता रहा एक आगे निर्वाण हो गया यह भिन्नता कैसे हुई है, संवित एकही थी, तिसविषे घट बढ फल कैसे प्राप्त हुए सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । वासना जो होती है सो देश काल पदार्थ करिकै होती है, तिसविषे जिसकी दृढ भावना होती है, तिसकी जय होती है, जैसे एक पुरुषने मनोराज्य कारकै चार मूर्तीि अपनी कल्पीं, तिनविषे वासना भिन्न भिन्न स्थापन करी; वह संवित तौ एक है, परंतु पूर्वका शरीर भुलिकार वह दृढ हो गये, तौ जैसी जैसी भावना तिन शरीरविषे दृढ होती है सोई प्राप्त होती है, तैसे संविविषे नानाप्रकारकी वासना फुरती है, जैसे एकही संवित् स्वप्नविषे नानाप्रकार धारती है, अरु भिन्न भिन्न वासना होती है, तैसेहीआकाशरूप संविउविषे भिन्न भिन्न वासना होती है । हे रामजी ! संवित एक थी परंतु देश काल क्रिया करिकै वासना भिन्न भिन्न हो गई, पूर्वकी संवितस्मृति भूलि गई, तिसकार घट बढ फलको पाते भये, सो संवित क्या रूप है । हे रामजी । देशते देशांतरको संवेदन जाती है, तिसके मध्य जो संवितसत्ता है सो ब्रह्मसत्ता है,जैसे एक जागृत्के आकारको छोडा, अरु स्वप्न पाया नहीं, तिसके मध्य जो ब्रह्मसत्ता है, वह