पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२९

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। (१६ १० ) योगवासिष्ठ । डिशताधिकष्टाविंशतितमः सर्गः २२२. - वटधानोपाख्यानवर्णनम् । दशरथ उवाच ।। हे भास! बडा आश्चर्य है, किं तु विपश्चित बुद्धिमान था, अरु चेष्टाते तू अविपश्चित डुआ, बुद्धि करी हैं, सो अविद्याके देखनेको तू समर्थ हुआथा, यह जगत् प्रतिभा तौ मिथ्या उठी है. असत्यके ग्रहणकी इच्छा तुझने क्यों करी ॥ वाल्मीकिरुवाच॥ हे राजन् ! जब इस प्रकार राजा दशरथने कहा, तब प्रसंगको पायकार विश्वामित्र बोलत भया । हे राजादशरथ ! यह चेष्टा सोई करता है, जिसको परमबोध नहीं होता अरु केवल मूर्ख अज्ञानी भी नहीं होता, काहेते कि जिसको परमबोध आत्माका अनुभव होता है, सो जगत्को अविद्यक जानता है, अविद्यक जगत्के अंत लेनेको एता यत्न नहीं करता, वह तौ असत्य जानता है, अरु जो देहअभिमानी मूर्ख अज्ञ है, तौ भी यह यत्न नहीं करता, काहेते कि उसको देखनेकी समर्थता भी नहीं होती, ताते तू मध्यभावी है, सो आत्मबोधते रहित है, अरु आधिभौतिक शरीर त्याग किया है, सो यत्न करता है, अरु जिनको उत्तम बोध नहीं हुआ, तौ बहुत इसप्रकार भटकते फिरते हैं । हे राजन् । इसीप्रकार वटधाना भी फिरते हैं, सत्तर लक्षवर्ष उनके व्यतीत भये हैं, जो इसी ब्रह्मांडविषे फिरते हैं, उनने भी यही निश्चय धारा हैं। कि, पृथ्वी कहाँलग चली जाती है, इस निश्चयते निवृत्त नहीं होते, अरु इसी ब्रह्मांडविषे भ्रमते हैं परंतु उनको अपनी वासनाके अनुसार विपरीत अपरही अपर स्थान पड़े भासते हैं ॥ हे राजन् ! जैसे किसी बालकको संकल्पका रचा वृक्ष आकाशमें होवै, तैसे यह भूगोल ब्रह्माके संकल्पविषे स्थित है, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी इन पांचों तत्त्वका ब्रह्मांडरचा है, संकल्पकारकै जैसे एक खेन होवे, तिसके चौफेर कीड़ी फिरै, सो जिस ओरते वह जाती है, सोई ओर ऊर्ध्व भासता है,सो अपरही अपर निश्चय होता है, तैसे यह संकल्पका रचा भूगोल है, तिसके किसी कोणविषे वदधाना इसप्रकार जीव होत भये हैं, एक राजा था, तिसके तीन