पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३५

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(१६१६) यौंगवासिष्ठ । सुषुप्तिरूप हो गया, अरु सब जगत्का विस्मरण हो गया, तेंब गाँढे सुषुप्ति क्षीण भई, तब एक स्वप्न आया, तिस स्वप्नविषे यह जगत् तुम्हारा मुझको भास आया, तिसविषे पहाड कंदरा देश गुप्त प्रगट स्थान मुझको भासि आये, जहां सिद्धकी गम है तहाँ भी मैं गया हौं, अरु जहाँ सिद्धकी गम नहीं है तहां भी मैं गया हौं, इसप्रकार यत्न देखे हैं, परंतु आश्चर्य है, कि स्वप्नकी सृष्टि प्रत्यक्ष जागृतविषे दृष्ट आवे है; अरु स्वप्नके शरीर जागृतविषे पडे भासते हैं, ताते सब जगत् भ्रममात्र है, असतही सत् होकरि दिखाई देता है, इसप्रकार देखिकार मैं आश्चर्यको प्राप्त भया हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विपश्चितकथावर्णनं नाम द्विशताधिकत्रयोविंशतितमः सर्गः ॥ २२३ ॥ द्विशताधिकचतुर्विंशतितमः सर्गः २२४. . महाशववृत्तान्तवर्णनम् ।। विपश्चित उवाच ॥ हे राजन् ! एक सुष्टि जो मैंने देखी हैं सो किस आकाशमें हैं, इस महाआकाशमें है, जो इस महाआकाशते भिन्न नहीं अरु तहां तुम्हारी भी गम नहीं, जैसे स्वप्नकी सृष्टि को जागृत विषे देखना चाहै सो दृष्ट नहीं आती, तैसे वह सृष्टि है॥हे राजन् !-पृथ्वीका एक स्थान था सो मेरे देखते देखते पच्छावेकी नई ऊरणे लगा, बहुरि वह आकाशविषे पहाडकी नाई भासने लगा अरु मनुष्यका शरीर अरु दशों दिशारोकि लिया, अरु आकाशते भी बड़ा भासने लगा, सो आकाशविषे भी समावै नहीं, बहुरि सूर्य चंद्रमाको मेरे देखते देखते आच्छादि लिया, बहुरि भूकंप जैसा आया, मानौ प्रलयकाल आया है, तब मैं अपने इष्ट अग्नि देवताकी ओर देखत भया अरु कहा । हे भगवन् । तुम मेरी जन्म जन्म रक्षा करते आये हौ, अब भी मेरी रक्षा करौ, मैंनष्ट होता हौं तब अग्निने कहा तू भय मत कर, तब मैं अग्निविषे जीव प्रवेश किया, बहुरि अग्निने कहा, मेरे वाहनपर आरूढ होकर मेरे स्थानविषे चल, तब मुझको अपने वाहन तोतेपर चढ़ायकार मेरे तांई आकाशमार्गमें