पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५४

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कर्मनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६३५) बांधव पुत्र स्त्री माता पिता आदिक नष्ट हो गये, हैं, अरु दूसरा कल्प हुआ है, तिसकी भी प्रलय होती है, बारह सूर्य आनि उदय हुये, विश्वको जलावने लगे हैं, अरु वडवाग्नि जलावने लगी, मंदराचल अरु अस्ताचल पर्वत जलिकार टूक टूक हो गये, पृथ्वी जर्जरीभावको प्राप्त हुई, स्थावर जंगम जीव हाहाकार शब्द करते हैं, बिजुली चमत्कार करती है, बडा क्षोभ आनि उदय हुआ है । हे वधिक । मैं अग्निविपे जाय पडा, मेरा शरीर भी जलै परंतु मुझको कष्ट कछु न होवे, जैसे किसी पुरुषको अपने स्वप्नविषे कष्ट आनि प्राप्त होवै अरु जागि उठे तौ कछु कष्ट नहीं होता, तैसे अग्नि का कष्ट मुझको कछु न होवे, मैं आपको वहीरूप जागृत्वाला जानौं अरु जगत्प्रलयको भ्रममात्र जानौं इस कारणते मुझको कष्ट कछु न होवे, अरु चेष्टा तौ मैं भी उसी प्रकार देखता भया अरु करता भया, परंतु अंतरते ज्योंका त्यों शीतलचित्त रहौं, अरु अपर लोक जो थे सो अग्निके क्षोभकार कष्ट पार्दै ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे हृदयांतरप्रलयाग्निदाहवर्मन नाम द्विशताधिकाष्टाविंशतितमः सर्गः ॥ २२८ ॥ द्विशताधिकैकोनत्रिंशत्तमः सर्गः २२९. कर्मनिर्णयवर्णनम् । मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक | प्रलयके क्षोभविषे मैं भी भटकौं, बार जलविषे बहता जाऊं, परंतु पूर्वशरीर मुझको विस्मरण न भया, इस कारणते शरीरका दुःख मुझको स्पर्श न करे, अरु मैं विचारत भया कि, यह जगत् तौ मिथ्या है, इसविषे विचरणेकारकै मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होता है, यह तौ स्वप्नमात्र है, इसविषे किसनिमित्त खेद पाऊ; ताते इस जगत्ते बाह्य निकसौं । वधिक उवाच ।। हे मुनीश्वर ! तुम जो उसके स्वप्नविषे जगत्को देखत भये सो जगत् क्या वस्तु था, अरु स्वम क्या था, उसकी संविविषे जगत् था, अरु तिस जगतुका