पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५८

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कर्मनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६ ( १६३९) अरु क्या उसका रूप है, जैसे वह जलहीरूप है, वैसे यह जगत् आत्मस्वरूप है, आत्माते इतर कुछ नहीं,जो कछु कल्पना करिये सो अविद्यामात्र है । हे वधिक ! जबलग यह संवित् बहिर्मुख फुरती हैं तबलग जगत् भासता है, अरु कर्म होते दृष्टि आते हैं, अरु जब संवित अंतर्मुख होवैगी,तब न कोऊ जगत् रहेगान कोऊ कर्म दृष्ट आवैगा,सब आत्मसत्ता भासैगी, जैसे हमको सदा आत्मसत्ता भासती है, वैसे तुझकोभी भासेगी । हे वधिक! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको जगत् आत्मत्वकर दिखाई देता है, अरु जो अज्ञानी हैं, तिनको प्रमादकार द्वैतरूप भासता हैं, तिसविषे पदार्थको सुखरूप जानकारी पानेका यत्न करताहै, सुखकार सुखी होता है, दुःखकार द्वेष करता है,जो परमानंद आत्मपद हैं,तिसके पानेका यत्न नहीं करता है, अरु ज्ञानवान् सदा परमानंदविष स्थित हैं, अरु सब जगत् तिनको ब्रह्मस्वरूप भासता है । हे वधिक ! जेता कछु जगत् तुझको दृष्ट आता है तो सबही ब्रह्म चिन्मात्रस्वरूप है, न कोऊ स्वम है, न कोऊ जाग्रत है, न कोऊ कर्म है, न कोऊ अविद्या है, सर्व ब्रह्मस्वरूप है, सदा अपने आपविषे स्थित हैं, तिसविषे अपर कछु नहीं, जैसे जलविषे आवर्स स्थित होता है, परंतु जलते इतर कछु नहीं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् हुएकी नाई भासता है, परंतु ब्रह्मते इतर कछु नहीं, सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है, तू विचारकरि देख तब तेरे दुःख मिटि जावेंगे, जबलग विचार करके स्वरूपको न पावैगा,तबलग दुःख न, मिटेगा, जब स्वरूपको पावैगा, तब सब कर्म नष्ट हो जावेंगे, जेता जेता विचार होता है, तेता तेता सुख है, जहाँ विचार उत्पन्न होता है, तहते अविद्या नष्ट हो जाती है, जैसे जहां प्रकाश होता है, तहां अंधकार नहीं रहता, तैसे जहां सत् असत्का विचार उत्पन्न होता है, तहाँ अविद्याका अभाव हो जाता है, बार संसारचक्रविषे न गिरैगा, अरु परमपदको प्राप्त होवैगा, जिस ज्ञानवान्को यह पद प्राप्त भया हैं, सो दुःखी नहीं होता ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठ निर्वाणप्रकरणे कर्मनिर्णयो नाम द्विशताधिकैकोनत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २२९ ॥