पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६२

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पविषे स्थित इनते रहित निराकार है, तिसविषकार है, भिन्न महाशवोपाख्यानेनिर्णयोपदेशवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६४३) तैसा तैसा भासता हैं, जगत् आभासमात्र है, अरु जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको आत्मभावही सत् है, तिसविषे जैसा निश्चय होता है, तैसा होकार भासता है, ज्ञान ज्ञेय ज्ञातारूप जगत् भासता है, सो अनुभवते भिन्न कछु नहीं, जैसे स्वप्नविपे अनेक पदार्थ भासते हैं, सो अनुभवही अनेकरूप हो भासता है, अरु प्रलयविषे एक हो जाते हैं, तैसे ज्ञानरूपी प्रलयविषे सब एकरूप हो जाते हैं, जब संवित् फुरती है, तब नानाप्रकारका जगत् भासता है, अरु संवित् अफ़र होती है, तब प्रलय हो जाती है, तब एकरूप हो जाता है, एक चिन्मात्रसत्ता अपने आपविषे स्थित है, पृथ्वी आदिक पदार्थ तिसका चमत्कार है, भिन्न वस्तु कछु नहीं, आत्मसत्ता निर्विकार है, तिसविषे निराकार अरु साकार भी कल्पित हैं, इनते रहित निराकार है, जो पुरुष दृश्यसाथ मिले चेतन हैं,सो जडधर्म हैं, तिनको नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, ज्ञानवान्को सतरूप चिन्माब्रही भासता है । हे वधिक ! यह जगत् सब चिन्मात्र है,जब चित्तसंवित् फुरती है, तब स्वरूप जगत् भासता है, अरु जब चित्त संवित् ऊरणेते रहित होती है, तब सुषुप्ति होती है, तैसे चित्तसंवित् ऊरणेकरि सृष्टि होती है, अरु चित्त स्थिर होनेकार प्रलय हो जाती है, जैसे स्वप्नुअरु सुषुप्ति आत्माविषे कपित हैं, तैसे आत्माविषे सृष्टि, अरु प्रलय कल्पित आभासमात्र हैं, अपर कछु जगत् बना नहीं, ऊरणकारकै जगत् भासता हैं, ताते जगत् भी आत्मरूप है, पंचतत्त्व भी आत्माका नाम है, अरु सदा अद्वैतरूप जगत् आभासमात्र है, जैसे आत्माविषे साकार कल्पित हैं, तैसेही निराकार कल्पित हैं, जैसे स्वप्नविषे किसीको साकार जानता है, किसीको निराकार जानता है, दोनों फ़रनेमात्र हैं, जो फुरनेते रहित हैं, सो आत्मसत्ता है, अरु साकार भी निराकार वही है, आत्मसत्ताही इसप्रकार हो भासती है, निराकारही साकार हो भासता है ॥हे वधिक! जेता कछु जगत् तुझको दृष्ट अता है, सो सब चिन्मात्रस्वरूप है, इतर कछु नहीं, परंतु अज्ञानकारकै नानाप्रकार कार्य कारण भासता है,अरु जन्म मरण आदि विकार भासता है, वास्तवते न कोऊ जन्म है,न मरण है, न कोऊ कार्य है, न कारण है, अरु जो यह पुरुप मरता होवे, तौ