पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६३

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(१६४४) योगवासिष्ठ । परलोक भी देखें, अरु अपने मरणेको भी न जानै, जो परलोक देखता है, अपने मरणेको देखता है, सो मरता नहीं, जब यह मृतक होवे, तब पूर्व संस्कारको न पावै, अरु पूर्वस्मृति इसको न होवै, सो तौ पूर्व संस्कारेकरिकै क्रियाविषे प्रवर्तता है अरु प्रतियोगी कारकै पदार्थकी स्मृति भी हो आती है, बहुरि कर्मको भोगता है, पूर्वलोक तौ यह पुरुषे मृतक नहीं होता, भ्रमकार मरण भासता है, अरु कारण कार्यरूप पदार्थ भासते हैं, जब मरिकै परलोक देखता है, अरु सुखदुःखको भोगता है, तो शरीर किसी कारणकार नहीं बना, जैसे वह शरीर अकारण है, तैसे अपर जो आकार दृष्ट आते हैं, सो भी अकारण हैं, इसीते आभासमात्र है, जैसे स्वपके शरीरसाथ नानाप्रकारकी क्रिया होती हैं, अरु देशदेशांतरको देखता है, सो सब मिथ्या है, जैसे यह जगत् मिथ्या है, अरु मरण भी मिथ्या है, अरु जो तू कहै इसके साकारका अभाव देखता है सो मृतक है, तौ हे वधिक ! जो यह पुरुष परदेश जाता है, तो भी इसका आकार दृष्ट नहीं आता, जैसे दृष्टिके अभावविषे असत होताहै,तैसे देहके त्याग विषे भी इसका असत्भाव होता है, इस पुरुषका अभाव कदाचित नहीं होता, अरु जो तू कहे परदेश गया बहुरि भी आय मिलता है, शरीरके त्यागते बहुरि नहीं मिलता, प्रदेश गया बहुरि मिलकार वार्ताचर्चा आनि करता है, अरु मुआ तौ कदाचित् चर्चा नहीं करता, तौ मुआभी चर्चा करता है, सो श्रवण करु, जिसके पितर प्रीतिकारि बधेि हुए मरते हैं, अरु यथाशास्त्र उनकी क्रिया नहीं होती, तब वह स्वप्नविषे आय मिलते हैं, अरु यथार्थ कहते हैं, कि हमारी किया तुमने नहीं करी, हम अमुक स्थानविषे पड़े हैं, अरु अमुक द्रव्य अमुकंस्थानविषे पड़ा है,तुम काढि लेहु, तौ जैसे परदेश गये मिलते हैं, अरु वार्ता चर्चा करते हैं, तैसे मुए भी करते हैं, क्यों ॥ हे वधिक ! वास्तते न कोऊ जगत् है, न मरता है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविपे स्थित है,जैसा जैसा तिसविषे फुरना फुरता है, तैसा तैसा हो भासता है ॥ हे धिक | अनुभवरूप कल्पवृक्ष है; जैसा तिसविषे ऊरणा फुरता है, तैसा तैसा हो भासता है, एक संकल्पसिद्ध वस्तु है, अरु पर दृष्टिसिद्ध वस्तु है,जब उनकी दृढ भावना