पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६४

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महाशवोपाख्यानेनिर्णयोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६४५) होती है, तब यह दोनों सिद्ध होती हैं, जो इंद्रियके विषे द्रव्य पदार्थ है, सो दृष्टिसिद्ध वस्तु कहाती है, जो इसकी भावना होती है तो यह प्राप्त होती हैं, अरु जो अपने मनविपे आपही मान छोडिये कि, मैं ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य शूद्र वर्ण हौ अथवा गृहस्थ वानप्रस्थ ब्रह्मचारी संन्यासी आश्रम हौं,इत्यादिक मानना संकल्पसिद्ध है, जबलगइनविपे अभ्यास होता है, तबलग आत्मसत्ताकी प्राप्ति नहीं होती, अरु जो आत्मसत्ताका अभ्यास होवे तब इन दोनों का अभाव हो जाता है, आरमाही प्रत्यक्ष अनुभवकारिकै भासता है । हे वधिक ! जिस वस्तुका अभ्यास होता हैं तिसीकी सिद्धता होती है, जो भावना करै अरु थककार फिरे नहीं तौ अवश्य प्राप्त होता है, अभ्यासविना कछु सिद्ध नहीं होता, जैसे कोऊ पुरुष कहै,मैं अमुक देशको जाता हौं,तौ जबलग उसकी ओर चलै नहीं तबलग अनेक उपायकार भी नहीं प्राप्त होता, जब उसकी ओर चलेगा तब पहुँचि रहेगा,तैसे जब आत्माका अभ्यास बहुत एकाग्र होकार करेगा तब उसको प्राप्त होवैगा,अन्यथा आत्मपदको न प्राप्त होवैगा ।। हे वधिक ! जिस पुरुषको जगदके पदार्थकी इच्छा है तिसको आत्मपद प्राप्त नहीं होता,अरु जिसको आत्मपदकी इच्छा हैं,तिसकोवही प्राप्त होवैगा,जगत्के पदार्थ न भासँगे, जैसी भावना होवैगी कि मेरीदेवताकी मूर्ति होवे,तिसकर मैं स्वर्गविषे विचरौं,अरु एक स्वरूपकार भूलकविषे मृग होनेकी भावना होवे,तबदृढ़ अभ्यासकार वही होजाताहै,काहेते जो जगत् संकल्पमात्र है,जैसा जैसा निश्चय होता है, तैसाही भासि आता है ॥ हे वधिक 1 दो स्वरूपकी क्या बात्त है, जो सहस्र मूर्तिकी भावना करें,तो वही तद्रूप हो जावैगा, जैसी यह पुरुष भावना करता है, तैसाही रूप होजाता है,अरु यह अविद्यक भ्रममात्र जगत् है,इसकी भावना त्यागिकार आत्मपदका अभ्यास करहु, तब तेरे दुःख मिटि जावें ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे महाशवोपाख्याने निर्णयोपदेशो नाम द्विशताधिकत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३० ॥