पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६८

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जागृत्स्वमसुषुप्तिविचारवर्णन-निर्वाणपकरण, उत्तराई ६.(१६४९) जो मृत्तिकाविना घटे नहीं बनता, अरु जागि उटै तब सर्वं जगत् आत्मरूप हो जाता है । हे वधिक | यह जगत संवेदनविषे स्थित हैं, जवलग अहंभावका ऊरणा है, तबलग जगह है, जब अहंभाव मिटता है, तब सर्व जगत् शून्य आकाशवत् होता है, जबलग अई फुरती है, तबलग नानाप्रकारका जगत् हो भासता है, जैसी भावना होती हैं, तैसा भासता है, अरु सर्व पदार्थ सर्वदा काल अपनी अपनी शक्तिविषे जैसे आदि नेति हुई है, तैसेही स्थित हैं, जो जीव जैसी क्रियाका अभ्यास करेगा तिसके फलको पावैगा, जो बंधनके निमित्त करेगा सो बंधनको पावैगा अरु मोक्षके निमित्त करैगा तो मोक्षको पावैगा, ऐसेही आदि नेति हुई है ॥ हे वधिक इसप्रकार किंचन होकार मिटि जाता है, अरु आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, अरु जगतकी उत्पत्ति प्रलय ऐसे हैं, जैसे हाथी अपनी शृंडको पसारै अरु बैंच, तैसे चित्त संवेदनके पसरणेकरि जगत् उत्पन्न होता है, अरु निस्पदुविषे प्रलय हो जाता है। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कार्यकाराणाकारणनिर्णयो नाम द्विशताधिकैकत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३१ ॥ द्विशताधिकद्वात्रिंशत्तमः सर्गः २३२. | जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिविचारवर्णनम् । मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! यह संपूर्ण जगत् चिद् अणुकें ओजविषे है, अरु तिस संबंधके अभ्यासकारकै आत्मा चिद् अणुकी संज्ञाको पाता भया है, ओज अंतःकरण हृदय तीनों अभेद हैं, तिसविषे स्थित चेतनसत्ता हैं, बाहरते मृतक रूपवत् होती है, अरु तिसविणे जीवितरूप है, अरु तहाँ बड़े प्रकाशकार प्रकाशती है, तिस सत्ता आगे चित्तसाथ संयोग हुआ है, चित्त अरु प्रार्णकलाका संयोग हुआ है । हे वधिक! जब प्राण क्षोभते हैं, तब चित्त खेदको प्राप्त होता है, अरु जब चित्त खेदको प्राप्त होता है, तब प्राण भी खेदको पाते हैं, जब प्राण १०४