पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७७

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( १६५८) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकषत्रिंशत्तमः सर्गः २३६. | स्वप्ननिर्णयवर्णनम् । वधिक जैवाच ॥ है मुनीश्वर ! प्रलयके अनंतर तुमको क्या अनुभव हुआ था । मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तब मुझको तिसके अंतर सृष्टि और आई, अपने पुत्र कलत्र स्त्री संपूर्ण कुटुंब भासि आये, तिनको देखिकर मुझको ममत्व फुरि आई, अरु पूर्वकी स्मृति भूल गई, घोडश वर्षका आयुर्बल मुझको अपना भासा, गृहस्थाश्रमविषे स्थित भया, रागद्वेषसहित मुझको जीवके धर्म फुर आये, काहेते जो दृढ सुझको हुआ न था ॥ हे वधिक ! जब दृढ बोध होता है, तब राग द्वेष आदिक जीवधर्म चलाय नहीं सकते, संसारको सत्य जानकरि वासना कोऊ नहीं होती, इसी कारणते चलायमान नहीं होता, अरु जिसको बोधकी दृढता नहीं, तिसको जगतकी वासना बैंचि ले जाती है । हे वधिक ! अब मुझको दृढ बोध हुआ है। इसको तरना महाकठिन है, यह पिशाचिनी महाबली है, काहेते कि चिरकाल दृश्यका अभ्यास हुआ इस कारणते चलाय ले जाती है,जब सच्छास्त्रका विचार अरु संतका संग जीवको प्राप्त होता है, अरु अभ्यास दृढ होता है, तब दृश्यका सद्भाव निवृत्त हो जाता है, जबलग यह मोक्षका उपाय नहीं प्राप्त भयो तबलग यह भ्रम दृढ हो रहा है, जब संतके संग अरु सच्छास्त्रके विचारकार इसको यह विचार उपजै कि मैं कौन हौं, अरु यह जगत् क्या है, इसको विचारिकरि आत्मपदका दृढ अभ्यास होवै, तब दृश्यभ्रम मिटि जाता है, काहेते कि असम्यक ज्ञान करिकै जगत् सत् भासा है, जब सम्यक् ज्ञान हुआ तब जगत्का सद्भाव कैसे रहे, जैसे आकाशविर्षे नीलता भ्रमकरि भासती है, जैसे बाजीगरकी बाजी, जैसे जेवरीविषे सर्प भ्रमकार भासता है, तैसे आत्माविषे जगत् भ्रमकार भासता है, जब अपने स्वरूपविषै जागता है, तब जगभ्रम मिटि जाता हैं, जबलग स्वरूपविषे जागा नहीं, तबलग जगत्भ्रम मिटता नहीं ॥ वधिक उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! यह तुम सत् कहते हौ, कि जगत्भ्रम मिटना कठिन है, मैं