पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८१

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(१६६३) यौगवासिष्ठ । द्विशताधिकसप्तत्रिंशत्तमः सर्गः २३७. स्वप्नविचारवर्णनम् । व्याध उवाच ॥ हे मुनीश्वर! उस पुरुषके हृदयविषे जो तुम सृष्टि देखी थी, तिसविषे तुम किस प्रकार विच रतेथे, अरु क्या देखाथा सो कहौ ॥ सुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! जो कछु वृत्तांत है सो तू सुन, जब मैं उसके हृदयविषे नानाप्रकारका जगत् देखा, तब मैं अपने कुटुंबविषे रहने लगा, पूर्वकी स्मृतिका विस्मरण किया, अरु चेष्टा करत भयो, षोडश पर्षपर्यंत सत् जानिकर मैं चेष्टा करी तब मेरे गृहविषे एक उग्रतपा नाम ऋषीश्वर मान्य करने योग्य आया, तिसका मैं बहुत आदर किया चरण धोइकारे सिंहासनपर बैठाया, अरु नानाप्रकारके भोजनकार तिसको तृप्त किया, तिस ऋषिनै भोजन कारकै विश्राम किया तब मैं कहा, हे परमबोधवान् । अदृष्टक्रोधको मैं जानता हौं, अरु तुम परमबोधवान् हौ, तुम आपको आपही जानते हौ, अरु जब तुम आये तब थके हुये थे, परंतु तुम्हारेविषे क्रोध दृष्ट न आया, अरु नानाप्रकारके तुम भोजन किये, तब तुम हर्षवान् भये, इस कारणले मैंने जाना कि तुम परमबोधवान् हौ तुम्हारेविषे राग द्वेष कछु नहीं, ताते मैं एक प्रश्न संशयसंयुक्त होकर करता हौं, तिस संशयको कृपा कर दूर करौ ॥ हे भगवन् ! इस जगत्नगरविषे दुर्भिक्ष आनि पड़ता है, अरु मृत्यु प्राप्त होती है, इकडे मारे जाते हैं, अरु कष्ट पाते हैं सो क्या कारण हैं, यह तौ मैं जानता हौं, कि जैसे कर्म शुभ अथवा अशुभ जीव करता है, तैसे फलको पाता है, जैसे धान्यको बोता है, तब समय पायकार फल भी अवश्य आता है, तैसे कर्मका फल अवश्य प्राप्त होता है, सो जिसने किया है सोई भोगता है, अरु इकट्ठा कष्ट क्योंकार आनि प्राप्त होता है । उग्रतपा उवाच ॥ हे साधो ! प्रथम सुन, कि जगत् क्या वस्तु है, यह जगत् कारणविना उत्पन्न भया है, जो कारणविना दृष्ट आवै सो भ्रममात्र जानिये, ताते तू विचारकर देख कि यह जगत् क्या है, अरु तू कौन हैं, अरु इसविर्षे क्या है, अरु इसका अंत परिमाण कहलिग हैं।