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देहसत्ताविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

आत्माको दुःख अरु नाश नहीं होता, चेतन आत्मसत्ता नाश नहीं होती, अरु स्वरूपते चलायमान भी नहीं होती, न विकारको प्राप्त होती है, सर्वदा शुद्ध अच्युतरूप अपने आपविषे स्थित है, देहके नाश हुए तिसका नाश नहीं होता, अज्ञानका दृढ अभ्यास हुआ है, तब देहके धर्म अपनेविषे भासने लगे हैं, जब आत्माका दृढ़ अभ्यास होवै, तब देहाभिमान अरु देहके धर्म अभाव हो जावै, जैसे चक्रके ऊपर कोऊ चढ़ता है, अरु भ्रमता है, जब उतरता है, तब केताक काल भ्रमता भासता है, जब चिरकाल व्यतीत होता है, तब स्थित हो जाता है, देहरूपी चक्र इसको प्राप्त भया है, अज्ञानकारिकै भ्रमा हुआ आपको भ्रमता देखता है, जब अज्ञानका वेग निवृत्त होता है, तब भी कोई काल देहभ्रम भासता है, तिसकरि जानता है, मेरा नाश होता है, मुझको दुःख होता है, इत्यादिक कल्पना अज्ञानकरि भासती है, तिस भ्रम दृष्टिको धैर्यकरिकै निवृत्त करता है, तब अभाव हो जाता है॥ हे रामजी! जैसे भ्रमकरिकै जेवरीविषे सर्पभासता है, तैसे आत्माविषे देहभासना असत्य है, जड है, न कर्मको करती है, न मुक्त होनेकी इच्छा करती है, अरू दैव परमात्मा भी कछु करता नहीं वह सदा शुद्ध द्रष्टा प्रकाशक है, जैसे निर्वात दीप अपने आपविषे स्थित है, तैसे तू शुद्धस्वरूप अपने आपविषे स्थित होह, जैसे सूर्य आकाशविषे स्थित होता है, अरु सर्व जगत‍्को प्रकाश करता है, तिसके आश्रय लोक चेष्टा करते हैं, परंतु सूर्य कछु नहीं करता, सबका साक्षीभूत है, तैसे आत्माके आश्रय देहादिककी चेष्टा होती है, परंतु आत्मा साक्षीरूप है, पापपुण्यते रहित है॥ हे रामजी! यह देहरूपी शून्य गृह है, तिसविषे अहंकाररूपी पिशाच कल्पित है, जैसे बालक परछाईविषे वैताल कल्पता है, अरु भयको पाता है, तैसे अहंकाररूपी पिशाच कल्पिकरि भयको पाता, है, सो अहंकाररूपी पिशाच महानीच है, सर्व संतजनकार निंद्य है, जब अहंकाररूपी वैताल निकसै, तब आनन्द होवै, देहरूपी शून्य गृहविषे इसका निवास है, जो पुरुष इसका टहलुआ हो रहा है, तिसको यह नरकविषे जाता है, ताते तुम उसका टहलुआ नहीं होना इसके नाशका

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