पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०१

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( १६८३) योगवासिष्ठ । राजा विपश्चित !इस प्रकार मुनीश्वरने वधिकको कहा तब वधिक आश्चयैको प्राप्त हुआ, अरु वहांते उठि खड़ा हुआ, मुनीश्वरसहित स्रानको गये अरु दोनों तप करें, अरु शास्त्रको विचारें, जब केता काल व्यतीत भया, तब मुनीश्वर निर्वाण हो गया, तहाँ वधिकही तप करनेको समर्थ भया, कि किसी प्रकार मेरी अविद्या नष्ट होवै ॥ हे राजा विपश्चित् । सौ युगपर्यंत वधिकने तप किया तब ब्रह्माजी देवतोंको साथ लेकर आया, अरु कहा कछु वर माँग, तब उस वधिकने कहा, मेरा शरीर बड़ा होवै, मैं अविद्याको देवीं ॥ हे राजन् । वधिक जानत भया कि इस वर माँगेते मेरा भला नहीं, परंतु दृढ भावनाके बलते जानिकार यही वर माँगा, कि मेरा शरीर बडा होवै, घड़ीचड़ीविषे योजनपर्यंत बढे, तब ब्रह्माजीने कहा ऐसेही होवैगा, इस प्रकार कहिकार ब्रह्माजी अंतधीन होगये, तब उसका शरीर बढने लगा , एक घड़ीमें एक योजन बढे, कल्पपर्यंत उसका शरीर बढने लगा, कई ब्रह्मांडपर्यंत चला गया, जिस ओरको देखौं, तिस ओर अनंत सृष्टि दृष्ट आवै, अविद्यारूप जब थका तब फिरा, जो अविद्याका अंत तौ नहीं आता, इस शरीरको मैं कहां लग उठाये फिरों, इसका अब त्याग करौं, तब आत्मपदको प्राप्त होऊंगा ।। हे राजा विपश्चित् ! तब प्राणको ऊर्ध्व बैंचकर शरीरको त्याग दिया, वही शरीर यहां आनि पड़ा है, जिस ब्रह्मांडते यह गिरा है सो हमारे स्वप्नकी सृष्टि है, अर्थ यह कि अन्य सृष्टिका था, स्वप्नवत् इस सृष्टिविषे इसकी प्रतिमा आनि पडी है, अरु यहाँ जाग्रत् सृष्टिविणे आनि पड़ा है, तिसते पृथ्वी पहाड सब नाश करिडारे हैं, अरु जहाँते गिरा है, तहाँ आकाशविथे तरुवरेकी नई उनको भासता था, अरु यहां इसप्रकार गिरा है, जैसे इंद्रका वज्र होता है । हे विपश्चितविषे श्रेष्ठ ! वही वधिकका महाशव था, जब उसका शरीर गिरा, तब भगवतीने उसका रक्तपान करा, तिसकार उसका नाम रक्ता भगवती हुआ, अरु अपर जो शरीरकी सामग्री रही सो मेधा पृथ्वी भई, जब चिरकाल व्यतीत भया, तब मृत्तिका पृथ्वी हो गई, तिस पृथ्वीका नाम मेदिनी पडा, अरु ब्रह्माजीने जो नूतन सृष्टि रची है, तिस पृथ्वीपर अब