पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०२

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विपश्चिदेशांतरन्नमवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६८३) कल्याण हुआ है, अब जहाँ तेरी इच्छा होवे, तहाँ तू जावै, मैं भी अब जाता हौं, इद्रको सुवा यज्ञ करना है, तिसने मेरा आवाहन किया है, तहां मैं जाता हौं । भास उवाच ॥ हे राजा दशरथ ! इसप्रकार मुझको कहकर अग्नि देवता अंतर्धान हो गया, जैसे महाश्याम मेघते सौदामिनी चमत्कार कारकै अंतर्धान हो जाती है, तैसे अग्नि अंतर्धान हो गया, तब मैं वहांते चला, एक सृष्टिविषे गया, तहां अपर प्रकारके शास्त्र अरु अपर प्रकारके प्राणी थे, बहुरि आगे अपर सृष्टिविषे गया तहाँ ऐसे प्राणी देखे, जिनकी टांगें काष्ठकी अरु आचार मनुष्यका था, आगे अपर सृष्टिविषे गया, उसके शरीर पाषाणके अरु दौड़ते हैं, व्यवहार करते हैं; तिसते परे अपर सृष्टिविषे गया, तहां शास्त्ररूपी उनकी मूर्ति थीं, तिसते आगे गया, तहाँ दया देखौं, प्राणी बैठेही रहैं, बालते वात्त करते हैं, परंतु खानपान कछु नहीं करते ॥ हे राजा दशरथ ! इसप्रकार मैं चिरकालपर्यंत फिरता रहा परंतु अविद्याका अंत कहूँ न आया तब मैंने विचार किया कि आत्मज्ञानी होऊ तब अंत आवैगा, अपर किसी प्रकार अंत न आवैगा, इसप्रकार विचार करके मैं एक वनविषे गया, अरु ज्ञानकी सिद्धताको तप करने लगा, जब केतक काल तप किया, तब चित्तविषे यह इच्छा उपजी कि, किस प्रकार संतके निकट जाऊं तिसकी संगतिकार मुझको शांतपद प्राप्त होवैगा॥ हे राजन् ! ऐसे विचार कार मैं वहाँते चला, कल्पवृक्षके वनविषे आया, तहां एक पुरुष मुझको मिला तिसने कहा ॥ हे साधो ! कहां चला है, मेरे निकट तौ आउ, तब मैंने उसको कहा, तू कौन है, तब उसने कहा मैं तेरा तप हौं, जो ने किया है, अब जो कछु वर तू माँग सो मैं तुझको देऊ तब मैंने कहा कि हे साधो । मेरी इच्छा यही है, कि मैं आत्मपदको प्राप्त होऊं तब उसने कहा ॥ हे साधो ! अब तुझे एक जन्म अपर मृगका पाना है, वह शरीर तेरा अग्निविषे जलैगा, तब तू मनुष्यका शरीर पावैगा, अरु ज्ञानवान्की समाविषे जावैगा, तिस समाविषे जब तू मनुष्यशरीर धारैगा, अरु ज्ञानवान्की संभाविषे जावैगा, तिस तेरे तांई सब जन्मकी अरु क्रियाकी स्मृति हो आवैगी, अरु तुझको स्वरूपकी प्राप्ति होवैगी, तू अब मृगशरीर धारु॥ हे राजा दशरथ ! इसप्रकार जब उसने कहा तब मैंने