पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१९

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( १७००) योगवासिष्ठ । नहीं, जैसे अवयव अवयुवीका रूप है, तैसे जगत् आत्माको रूप है, जब आत्माविषे स्थित होवैगा, तब अहं त्वं आदिक शब्दका अभाव हो जावैगा,अरु द्वैत अद्वैत शब्द भी न रहेगा, द्वैत अद्वैत शब्द भी बालक अज्ञानीके ससुझावनेनिमित्त कहे हैं, जो वृद्ध ज्ञानवान हैं, इन शब्दनपर हाँसी करते हैं, जो अद्वैतमात्रविषे इन शब्दोंका प्रवेश कहा है, जिनको यह दशा प्राप्त भई है, तिनको न बंध है, न मोक्ष है ॥ हे रामजी । सुषुप्ति अरु तुरीयाविषे कछु थोड़ा भेद है,जो सुषुप्तिविषे अज्ञान जड़ता रहती है, अरु तुरीयाविषे अज्ञान जड़ता नहीं, चेतन अनुभवसत्तारूप है, अरु स्वप्नजाग्रतविषे भी भेद नहीं, परंतु एता भेद कहता हैं, कि अल्पकालकी अवस्थाको स्वप्न कहते हैं, अरु चिरकालकी अवस्थाको जाग्रत कहते हैं ॥ हे रामजी । जाग्रत् स्वप्न अरु सुषुप्ति यह तीनों स्वप्न अरु सुषुप्तिरूप हैं, जाग्रत अरु स्वप्न यह उभय स्वरूप हैं, अरु सुषुप्ति अज्ञानरूप है, अरु जाग्रत जो है, सो तुरीयारूप है, और जाग्रत को नहीं, जिस जागनेते बहुरि भ्रम प्राप्त होवे, तिसको जाग्रत कैसे कहिये । उसको भ्रममात्र जानिये, अरु जिस जागनेते फेर भ्रमको न प्राप्त हो तिसका नम जाग्रत है, स्वम् । सुषुप्ति तुरीया चारों अवस्थाविये चेतनमान्न घनीभूत हो रहा है, सो चारोंको नहीं देखता, ज्ञानवाने जब प्राणका स्पंद रोककर आत्माकी ओर चित्तको लगाते हैं, अरु परस्पर ज्ञानमात्रका निर्णय चर्चा करते हैं, अरु ज्ञानमात्रकी कथा कीर्तन करते हैं, अरु तिसकार प्रसन्न होते हैं, ऐसे जो नित जाग्रत पुरुष हैं, अरु निरंतर प्रीतिपूर्वक आत्माको भजते हैं, तिनको आत्मविषयिणी बुद्धि आनि उदय होती है, तिसकर शांतिको प्राप्त होते हैं, जिनको सदा अध्यात्म अभ्यास है, अरु अभ्यासविषे उत्तम हुये हैं, तिनको आत्मपद प्राप्त होता है, वही हाँसी करते हैं, काहेते कि, उनको शतपद प्राप्त भया है, अरु जो अज्ञानी हैं, सो रागद्वेषकारे जलते हैं, अरु जिनको आत्माका दृढ अभ्यास हुआ है, तिनको अवेदनसत्ता शांति प्राप्त होती है, अरु आत्मस्थिति प्राप्त होती है, जिसके आगे इंद्रका राज्य भी सूखे तृणवत भासता है, ऐसा. परमानंद आत्मसुख है, अरु सर्व जगत तिनको