पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२७

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(१७०८) योगवासिष्ठ । ' उसके अंतर स्थित हैं, यह शिला महासूक्ष्म है, निराकार है, आकाशरूप है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! आदि मध्य अंतते रहित है, तब तुम कैसे देखी है, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! वह अपर किसीकरि जानी नहीं, जाती, अपने आप अनुभवकरि जानी जाती है, मैं जो देखी है, सो अपने स्वभावविषे स्थित होकार देखी है, जैसे स्तंभको अणस्तैभविषे स्थित होकार देखें तैसे मैं तिसविषे स्थित होकर देखी है, हम भी तिस शिलाकी रेखा हैं, ताते मैं तिसविषे स्थित होकार देखी है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । वह कौन शिला है, उसके ऊपर कौन रेखा है सो कह ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! परमात्मारूपी शिला है, अपर कौन होवे, अरु मैं तेरे ताँई शिलारूप कहा है, इन वचन कारकै शिलारूप क्यों कहा हैं, जो घन चेतनरूग है, उसते इतर कछु नहीं, अरु अचिन्तरूप है,तिसकेऊपर पंचतत्त्व रेखा सो रेखा भी वहीरूप हैं, एक रेखा बडी है, तिसविषे अपर रेखा रहती हैं, सो बड़ी रेखा आकाश हैं, अपर तत्त्व आकाशविषे रहते हैं, सब पदार्थ आकाशविर्षे हैं,सो सब वहीरूप है, तू भी वहीरूप है, मैं भी वही रूप हौं, अपर कछु हुआ नहीं, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार सब ब्रह्मरूप हैं, जेते कछु पदार्थ अरु कर्म भासते हैं, सो सब ब्रह्मरूपी शिलाकी रेखा हैं, अपर कछ हुआ नहीं, सर्वे काल विषे ब्रह्मसत्ताही स्थित है, नानाप्रकारके व्यवहार भी दृष्ट आते हैं, परंतु वहीरूप हैं, अपर कछु है नहीं, तैसे यह भी जान, घट पट्ट पहाड केंद्र स्थावर जंगम जेता कछु जगत् भासता है, सो सब आत्मरूप हैं, आत्माही फुरणेकरिकै ऐसे भासता है, जैसे जलही तरंग लहरि होकार भासता है, जैसे ब्रह्मसत्ताही जगतरूप होकर भासती है, अरु जैते वह पदार्थ हैं, पवित्र अपवित्र सत्असत् विद्या अविद्या सब आत्म सत्ताहीके नाम हैं, इतर वस्तु कछु है नहीं, ब्रह्मसंत्ताही अपने आपवित्रे स्थित है। हे रामजी ! यह सर्वही घन ब्रह्मरूप है, अरु चिन्मात्र घुनही यह सर्व व्यापरही है, सो परमार्थसत्ता घन शाँतरूप है, अरु यह