पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४९

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(१७३०) यौगवासिष्ठ । * नट स्वांगको धारता है, सो सब स्वाँगको आभासमात्र जानताहै,किसी स्वांगको सत् नहीं जानता, सबविषे स्वांगी अनागत जानता है,तिसते इतर कछु नहीं, तैसे हमको ब्रह्मते इतर कछु नहीं भासता, अरु अज्ञानी निश्चयको हम नहीं जानते, जिसप्रकार उसको जगतशब्द है, सो उसके निश्चयकों को नहीं जानते हैं, हमारे निश्चयविषे सब चिन्मात्र है, अज्ञानीको जगह द्वैतरूप भासता है, अरु विपर्यय भावना होतीहै, ज्ञानवान्को चिन्मात्रते इतर कछु नहीं भासता, जैसे स्वप्नकी सृष्टि अपने अनुभवविखें स्थित होती है, सर्वका अधिष्ठान अनुभवसत्ता है, परंतु निद्रादोषकारके भिन्न भिन्न भासती हैं, तैसे अज्ञानीको जगवभिन्न भिन्न भासता है,अरु जो जागे हुये ज्ञानवान् हैं,तिसको भिन्न कछु नहीं भासता, न उनको अविद्या भासती है, न मूर्खता, न मोह भासता है, सब अपना आप हमको ब्रह्मस्वरूप भासता है, जहां कछु दूसरी वस्तु बनी नहीं, तहाँ स्मृति अरु अनुभव किसका कहिये यह कलना सही मिथ्या है । हे रासजी । सर्व अर्थका जो अर्थभूत हैं, सो ब्रह्म है; सब पदार्थ तिसविषे कल्पित हैं, स्मृति अरु अनुभव मनविषे होता है, सो मन आत्माविषे ऐसे हैं, जैसे सूर्यको किरणोंविखे जलाभास होता है, तिसविध स्मृति क्या कहिये, अझ अनुभव क्या कहिये, सब कल्पितहै, यह अर्थ है, अरु पृथ्वी आदितत्त्व आत्माविषे कछु बने नहीं, ब्रह्मसत्ताही इसप्रकार भासती है, ज्ञानवान्को सदा ऐसेही भासता है, आभास भी आत्माविषे आभास है, कारणकार्यभाव कदाचित् नहीं भासता, जैसे सुर्यको अंधकार कदाचित् नहीं भासता, तैले ज्ञानवान्को कारणकार्यभाव दिखाई नहीं देता, जैसे स्वप्न आदि अद्वैतसत्ता होती हैं, तिसविषे अकारण स्वप्नकी सृष्टि फुर आती है, तैसे अद्वैतसत्ताविषे अकारण आदि सृष्टि फ़रि आई है, न पृथ्वी है, न कोऊ अपर पदार्थ है, सब चिदाकाशरूप है, अपर कछु बना नहीं,आभासमात्र जगविषे स्मृतिकी कल्पना कैसे होवे ॥ इति श्रोयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे स्मृत्यभावजगत्पश्माकाशवर्णनं नाम द्विशताधिकषपंचाशत्तमः सर्गः २५६॥