पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५७

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( १७३८) योगवासिष्ठ । अरु संस्कार अरु अनुभव यह तीनों आभासमात्र हैं जैसे सूर्यकी किरणों विषे जल भासता है, तैसे आत्माविषे तीनों भासते हैं ताते इस कलनाको त्यागिकार जगत् आभासमात्र जान,जैसे स्वप्नविषेघद भासते हैं, जो उनका कारण मृत्तिका कहिये तो बनती नहीं. काहेते कि घट अरु मृत्तिका आभास इकट्ठाही फुरा है,सो तौ आभासमात्र हुये तिन विषे कारण किसको कहिये, अरु कार्य किसको कहिये, तैसे स्मृतिसंस्कार अरु अनुभव जगत् सब इकट्ठे फुरे हैं इनबिषे कारण किसको कहिये अरु कार्य किसको कहिये, ताते सब जगत् आभासमात्र हैं। हे रामजी । जेता कछु जगत् तुझको भासता है सो आत्मसत्ताको आभास है, आत्मसत्ताही इसप्रकार हो भासती है, जैसे नेत्रका खोलना अरु पूँदना होता है, तैसे परमात्माविषे जगत्कीउत्पत्ति अरु प्रलयहोती है,जबचित्त संवेदनफुरती है, तब जगतरूप हो भासती है जब फुरणेते रहित होती है, तब जगत् आभास मिटि जाता है, उत्पत्ति अरु जगतकी प्रलयविषे आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है; जैसे खोलना अरु मून्दना, उभय नेत्रका स्वभाव, तैसे फुरणा अरु अफ़्रणा उभय संवेदनके स्वभाव हैं,जैसे चलना अरु ठहरि जाना उभय वायुके स्वभाव हैं जब चलती है तब भासती है, अरु नहीं भासती तब नहीं चलती, अरु चलनेविषे वायुकी तीन संज्ञा होती हैं। एक मंद चलती है, अथवा बहुत चलती है, शीतल अरु उष्ण स्पर्श होता है, तीसरा सुगंध दुर्गंध होती है, यह तीनों संज्ञा ऊरणेविषे होती है, जब ऊरणे चलनेते रहित होती है, तब तीनों संज्ञा मिटि जाती हैं, जैसे एकही अनुभवविषे स्वप्न अरु सुषुप्तिकी कल्पना होती है, स्वप्नविषे जगहोभासता है, अरु सुषुप्तिविषे नहीं भासता, परंतु दोनों विषे अनुभव एकही है, तैसे संवितुके ऊरणेकार जगत् भासता हैं, अरु ठहरनेविषे अच्युतरूप हो जाती है, आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों एकरूप है, ताते जो कछु जगत् भासता है, सो आत्माते इतर कछु नहीं, वहीरूप हैं, जगतुकी उत्पत्ति स्थिति अरु प्रलय तीनों आत्माका आभास है, तिसविषे आस्था नहीं करनी ॥ हे रामजी ! यह परमसिद्धांत तुझको मैं उपदेश किया है,परंतु जिनयुक्तिकार मैंने कहा है, तिन युक्तिकरि न किसीने कहा