पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८६६

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इंद्राख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६ (१७४७) होती है, चैतन्यता सो निराकार है, तिसको स्पर्श क्योंकरि कहिये, जो तुम कहो, उसकी इच्छाहीकरि: स्पर्श होता है, तौ हे मुनीश्वर ! मैं चाहता हौं कि, मेरे सन्मुख वृक्ष है, सो गिर पडै, वह तौ गिरता नहीं, काहेते कि, इच्छा निराकार है, जो साकार स्पर्श शब्द हवै, तब उसकी शक्तिकार गिर पड़े, अरु जो इच्छाहीकरि चेष्टा होती है, तो मैं इंद्रियां किसनिमित्त धारी हैं, इच्छाहीकार जगतकी चेष्टा होवे, अरु यह भी संशय है कि, एकके बहुत क्योंकार हो जाते हैं, अरु बहुतका एक क्योंकार हो जाता है, एक चेतन है, जब प्राण निकस जाते हैं तब जड जैसा हो जाता है, पाषाण अरु वृक्षकी नाई हो जाता है, आत्मा तौ सर्वेव्यापी है, जड कैसे हो जाता है, अरु एक पाषाण वृक्षरूप जड है, एक चेतन है, यह भेद एक आत्माविषे कैसे हुयाहै १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! तेरे संशयरूपी जो वृक्ष हैं तिन सबको मैं वचनरूपी कुहाड़ेकर काटता हौं, जिनको तू सप्रत्यक्ष साकार कहता है, सो आकार कोऊ नहीं, सब निराकार हैं, वह शुद्ध आत्मा अद्वैतसत्ता इसप्रकार हो भासती है, यह आकार कछु बने नहीं, जैसे स्वप्न नगरविधे आकार भासते हैं, सो आकाशरूप निराकार हैं, तैसे यह आकार भी तुझको दृष्ट आते हैं सो जब निराकार हैं, अरु स्वप्नविषे जो पर्वत भासते हैं सो किसके आश्रय होते हैं, अरु देहादिक भासते हैं, सो किसके आश्रय होते हैं, ताते वह कछु बने नहीं; अनुभवसत्ताही आकाररूप हो भासती है, तैसे यह भी जान. आकार कोऊ न ।। है। रामजी ! जब इन पदार्थों का कारण विचारिये तौ कारण कोऊ नहीं निकसता, इसीते जानेजाते हैं, आभासमात्र हैं, बने कछु नहीं, आत्मसत्ताही इसप्रकार हो भासती है; अरु आत्मसात्ता अद्वैत है, परशुद्ध हैं, तिसविषे जगत् कछु बना नहीं, मैं आकार क्या कहौं, अरु निराकार क्या कहौं, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश भी द्वैत कछु नहीं, शुद्ध आत्मसत्ताही इसप्रकार हो भासती हैं, जैसे संकल्पकरि रचे पदार्थ होते हैं, सो अनुभवते इतर कछु नहीं होते तैसे यह सब पदार्थ अनुभवरूप हैं, अनुभवते इतर कछु नहीं, इसके ऊपर एक आख्यान कहता हौं सो