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योगवासिष्ठ।

सप्तविंशतितमः सर्गः २७.

रुद्रवसिष्ठसमागमवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! अर्धरात्रिके समय जब मैं समाधिते उतरा, तब मुझको तेज प्रकाश दृष्ट आने लगा, जैसे मंदराचल पर्वतके पायेते क्षीरसमुद्र उछलि आता है, मानो हिमालय पर्वत मूर्ति धारिकरि स्थित है, मानो माखनका पहाड़ पिंड आनि स्थित हुआ है, मानो सब शंखकी स्पष्टता आनि स्थित भई है, मानो मोतीका समूह इकट्ठा होकरि उड़ने लगा है, महातीक्ष्ण प्रकाश दृष्टि आवै, मानो गंगाका प्रवाह उछलने लगा है, परंतु तिस प्रकाशकी शीतलताने सब दिशा तट पूर्णकरि लिये हैं, तब मैं देखिकरि आश्चर्यमान हुआ अकाल प्रलय होने लगा है, तब बोध दृष्टिकरि विचारने लगा कि, यह क्या है? तब मैंने देखा कि, देवताओंके गुरु ईश्वर सदाशिव चंद्रकलाको धारे हुए चले आते हैं, अरूगौरी भगवती के साथ हाथ ग्रहण किया है, अरु गणोंके समूहकरि वेष्टित हैं, कानोंविषे सर्प पड़े हुए हैं, कंठविषे रुंडकी माला है, शीशपर जटा है, तिसपर कदंब वृक्ष है, अरु तमाल वृक्षके फूल पड़े हुए हैं, ऐसे सदाशिव जो सबको फल देनेहारे हैं, तिनको मनकरिकै मैं देखत भया, अरु मनहीकरि मंदार वृक्षके पुष्प लेकरि अर्घ्य पाद्य करत भया, अरु मनहीकरि प्रणाम करत भया, अरु मनहींकरि प्रदक्षिणा देत भया, ऐसे करिकै मैं अपने आसनते उठि खड़ा हुआ, अपने शिष्यको जगावत भया, जगायकरि अर्घ्यपाद्य ले चला, जायकरि त्रिनेत्र शिवको पुष्पांजलि दिया, देकार प्रदक्षिणाकरि प्रणाम किया, तब मुझको चंद्रधारी कृपादृष्टिकरि देखत भया, अरुसुंदर मधुरी वाणी करि कहत भया, हृदयका तम नष्टकर्ता, शरन पड़ेको परम शांतिपद प्राप्तकर्ता ऐसे सदाशिवजी मुझको देखिकरि कहत भया॥ ईश्वर उवाच॥ हे ब्राह्मण! ले आउ अर्घ्य पाद्य, हम तेरे आश्रमविषे अतिथि आए हैं॥ हे निष्पाप! तुझको कल्याण तौ है? क्यों कि, तू मुझको महाशांतरूप भासता है, अरु महासुंदर उज्वल तपकी लक्ष्मीकरि तू शोभता