पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९४

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सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७७५) कार्य भासते हैं, परंतु जो सोया पडा है, तिसको दृढ भासते हैं, तैसे अज्ञानीको जगत् कार्यकारण दृढ भासता है, ज्ञानवान्को सब अपना आपही भासता है, जैसे स्वप्नते जागे स्वप्नसृष्टि अपना आपही भासनी है कि, मैही था, अपर कछु न था, तैसे ज्ञानवान्को सब जगत् आकाशरूप भासता है, पृथ्वी, आप, तेज,वायु,आकाश, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, पर्वत, वृक्ष, नदी, स्थावर, जंगम जेता कछु जगत् है, सो सब आकाशरूप है संवेदनके ऊरणेकरि दृष्ट भासते हैं, वास्तवते इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी ! यह जगत् चित्तविषे स्थित हैं, जैसे किसी पुरुषने स्तंभविषे पुतलियां कपी सो पुतलीके दो रूप होते हैं, जो शिल्पीको चित्तविषे फुरती हैं, सो आकाशरूप हैं, अरु जो स्तंभविषे कल्पी हैं, सो स्तंभरूप हैं, स्तंभविषे स्थित रूप हैं, अरु शिल्पीके चित्तविषे नृत्य करती हैं । हे रामजी ! अपर तौ कछु नहीं, स्तंभरूप हैं, सो शिल्पीके चित्तविषे कल्पनामात्र हैं, तैसे चित्तरूपी शिल्पीकी जगरूपी पुतलियाँ कल्पनामात्र हैं, आत्मरूपी स्तंभ ज्योंका त्यों है, आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे पटके ऊपर मूर्ति लिखी होवे, सो मूर्तिका रूप पटही है,पटते इतर कछु नहीं, वह पटही मूर्तिरूप भासता है, तैसे यह जगत् आत्माते इतर कुछ नहीं,आत्माही जगवरूप हो भासता है, आत्मा अरु जगतविषे भेद कछु नहीं, जैसे ब्रह्म आकाशरूप है, तैसेही जगत् आकाशरूप है, जगनुरूप आधार है, ब्रह्म तिसविषे वसनेहारा है अरु ब्रह्मरूप आधार है, जगत् तिसविषे वसनेहारा है ॥ हे रामजी । जैसे समूह है, जगत् विषे विद्या अरु अविद्यारूप सो सब संकल्पकारि रचित है, अरु वास्तवते सब आत्मस्वरूप है, समता सत्यता निर्विकारता इनते आदिलेकार अरु इनते विपरीत अविद्यारूप सो सब एकही रूप हैं, एकहीविषे फुरते हैं, अरु एकही रूप हैं, जैसे स्वप्न जगत अनुभवरूप अनुभवविषे स्थित होता है, सो सर्व आत्मरूप होता है, तैसे यह जगत् सर्व ब्रह्मरूप है, ब्रहते इतर न कछु वरकी कल्पना है, न शापकी कल्पना है, ब्रह्मसत्ता निवकार अपने आपविषे स्थित है, तिसविषे न कारण है, न कार्य हैं, जैसे ताल नदी-मेघ एकही जल होता है, तैसे सब जगत् ब्रह्मरूप है ।।