पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९०४

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विद्यावादबोधोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( (१७८५) इसका नाम बुद्धि होता है, वासनाके समूह मिलनेकरि पुर्यष्टका कहाती है, सो सब संकल्पमात्र हैं, तिनते. जगत् उपजा, सो भी संकल्परूप हैं, जैसे इंद्रजाल बाजी अरु स्वप्ननगर संकरुपकी दृढ़ता कारकै पिंडाकार भासते हैं, परंतु सब आकाशरूप हैं, तैसे यह जगच आकाशरूप है, आस्माते इतर कछु है नहीं, अरु जो तू कहे भासता क्यों है तौ जिसविषे भासता है, सो वही जान, अरु देश, काल, नदी, पहाड़, पृथ्वी, देवता, मनुष्य, दैत्य, ब्रह्माते आदि कीटपर्यंत जो स्थावर जंगमरूप जगत्भासता हैं,सो सब ब्रह्मरूप है, वेद शास्त्र जगत् कर्म स्वर्ग तीर्थ इत्यादिक जो पदार्थ हैं, सो सच ब्रह्मरूप हैं, वही निराकार अद्वैतब्रह्मसत्ता संवेदन कारकै जगतरूप हो भासती है, जैसे स्वप्नविषे अपनाही अनुभव सृष्टिरूपभासता है, तैसे अपनाही अनुभव यह जगत् हो भासता है, तोते सब ब्रह्मरूप है, जैसे समुद्र इवताकारकै तरंग हो भासताहै, अरु जलही जल है, तैसे शुद्ध चिन्मात्रविषे संवेदनकारिकै जगत् आभास फुरता है, सो ब्रह्महीब्रह्म है। इतर कछु नहीं ।। हे रामजी। जो कछु तुझको भासता है, सो सब अच्युत अनंतरूप अपने आपविषे स्थित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सर्वत्रहाप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकैकसप्ततितमः सर्गः ॥२७॥ द्विशताधिकद्विसप्ततितमः सर्गः २७२. विद्यावाबोधोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। जब द्रष्टा दृश्यरूपको चेतता है, तब विश्व होता है, सो विश्व सब अंतवाहकरूप है, अंतवाहक कहिये निराकार संकल्परूप है, जब दृश्यविषे अहंभावकारकै चेतता रहता है, तब अंत वाहकते आधिभौतिक शरीर हो जाता है, आदि जो ब्रह्मा संवेदन फुरा है, सो अंतवाहक शरीर हुआ है, जब वारंवार अपने शरीरको देखता भया, तब वह भी चतुर्मुख आधिभौतिक हो गया, ओंकारका उच्चारण करिकै वेद अरु वेदके क्रमकोरचता भया अरु संकल्पकारकै विश्वरचता भया, जैसे कोऊ बालक मनोराज्यकारिकै बगीचा रचै,तिसविषे नाना