पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२०

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. रामविश्रांतिवर्णन-निर्वाणपकरण, उत्तराई ६ (१८०१ ) है, सो परम मूर्ख जानिये, तिसको बोधकी प्राप्ति कदाचित् नहीं होती, जैसे मूर्तिकी अग्नि शीतको निर्वाण नहीं करती, तैसे उसकी मूर्खताको पंडित निर्वाण न करैगा । हे मुनीश्वर । सहस्रके सहस्रविषे कहूँ पुरुष तृष्णाविरहित होता है, जैसे सिंह पिंजरेविपे पड़ा पिंजरेको तोड निकसे, तैसे कहूं विरला तृष्णाके जालको तोड निकसता है, जो पंडित स्वरूपको विचारिके वितृष्ण नहीं होता, अरु अतीत होकार वितृष्ण नहीं होता, तौ पंडित अरु अतीत दोनों मूर्ख हैं, जेता जेता तृष्णाके घटावैगा त्यों त्यों जाग्रत् बोध उदय होवैगा, ज्यों ज्यों रात्रिकी क्षीणता होती है, त्यों त्यों दिनका प्रकाश होता है, अरु ज्यो ज्यों रात्रिकी वृद्धि होती है, त्यों त्यों दिनकी क्षीणता हीती है, तैसे ज्यों ज्यों तृष्णा बढती जावेगी, त्यों त्यों बोधकी प्राप्ति कठिन होवैगी, अरु ज्यों ज्यों तृष्णा घटती जावेगी, त्यों त्यों बोधकी प्राप्ति सुगम होवेगी । है मुनीश्वर। अब मैं तिस पदको प्राप्त हुआ हौं, अच्युत निराकार पद है, अरु द्वैत एक कलनाते रहित है, तिस पदको मैं आत्माकोरे जाना हैं, अब मैं निःशंक हुआ हौं, अरु जिस पदको पायेते इच्छा कोऊ नहीं रही, सो परमानंद आत्मपद है ॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रामविश्रांतिवर्णनं नाम द्विशताधिक पंचसप्ततितमः सर्गः ॥ २७५ ॥ द्विशताधिकषट्सप्ततितमः सर्गः ३७६. रामविश्रांतिवर्णनम् । ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । बडा कल्याण हुआ है, जो तू जागा है ॥ हे रामजी! यह परम पावन वचन तुझने कहे हैं, जिनके सुनेते पापका नाश होता है, बहुरि कैसे वचन तुझने कहे हैं, जो अज्ञानरूपी अंधकारके नाशकर्ता सूर्य है, अरु मन तनके तापको नाशकर्ता चंद्रमाकी किरणें हैं । हे रामजी ! जो पुरुष अपने स्वभावविषे स्थित हैं, तिनको व्यवहार अरु समाधिविषे एकही दशा है, अनेक प्रकारके चेष्टा