पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२९

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(१८१०) योगवासिष्ठ । होती है, उसकेप्राणको त्यागना अंगीकार करती है, परंतु इस पुरुषको नहीं त्यागती, तैसे जो ज्ञानवान् पुरुष ब्रह्मलक्ष्मीकरि सुंदरकांति है, तिसको समता मुदिता सुहृदुतारूपी स्त्री नहीं त्यागती, सदा इसके हृदयरूपी कंठमें लगी रहती हैं, वह पुरुष सदा प्रसन्न रहता है ॥ हैं रामजी ! जिसको देवताका राज्य प्राप्त होता है, वह भी ऐसा प्रसन्न नहीं रहता, अरु जिसको सुंदर स्त्रियां प्राप्त होवें, वह भी ऐसा प्रसन्न नहीं होता, जैसा ज्ञानवान् प्रसन्नहोता है ॥ हेरामजी! समता कैसी है, जो द्विधा- . रूपी अंधकारके नाशकर्ता सूर्य है, अरु तीन तापरूपी उष्णताके, नाश करनेको पूर्णमासीका चंद्रमा है, वडार कैसी है, सुहृदुता अरु समता जो सौभाग्यरूपी जलका नीचा स्थान है, जैसे जल नीचे स्थानमें स्वाभाविक चला जाता है, तैसे सुहृदुताविषे सौभाग्यता स्वाभाविक होती है, जैसे चंद्रमाकी किरणोंके अमृतकार चकोर तृप्तिवान होते हैं, तैसे आत्मरूपी चंद्रमाकी समता सुहृदतारूपी किरणोंको पायकरि ब्रह्मादिक चकोर तृप्त होकरि आनंदवान होते हैं, अरु जीते हैं ॥ हे रामजी । वह ज्ञानवान् ऐसी कातिकरि पूर्ण है, जो कदाचित् भी क्षीण नहीं होती, जैसे पूर्णमासीके चंद्रमाविषे भी उपाधि दृष्ट आती है, परंतु ज्ञानवान्के सुखविषे तैसे भी उपाधि नहीं, जैसे उत्तम चिंतामणिकी कांति होती है, तैसे ज्ञानवान्की कांति है, राग द्वेष करिकै क्षीण कदाचित नहीं होती, सदा प्रसन्न रहती है । हे रामजी । समता वही मानौ सौभाग्यकमलकी खानि है, ऐसे आनंदको लिये जगतविषे विचरता है, जो प्रकृत आचारको करता है, जो कुछ कार्य करता है, अरु भोजन करता है, जो कछु ग्रहण करता है, जो कछु देता है, सो सब लोक उसके कर्तृत्वकी स्तुति करते है । हे रामजी ! ऐसा जो पुरुष है, सो ब्रह्मादिकोंकार भी पूजनेयोग्य है। सर्वही उसीका मान करते हैं, अरु सवै उसके दर्शनकी इच्छा करते हैं। दर्शनकारिकै प्रसन्न होता है, जैसे सूर्यके उदय हुये सूर्यमुखी कमल खिले आते हैं, सर्व हुलासको प्राप्त होते हैं, तैसे उसका दर्शन देखिकार सर्व हुलासको प्राप्त होते हैं, अरु जो कछु वह करते हैं, सो शुभआचारही करते हैं, अरु जो कछु अपर भी कर बैठते हैं, तो भी उसकी निंदा