पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३३

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(१८१४) योगवासिष्ठ । वसिष्ठजी मुनियोंविषे शार्दूल कहिकरि तूष्णीं हो रहा, तब जेती कछु सभा वैठी थी, सो सर्वही परम निर्विकल्पपदविषे स्थित हो गई, जैसे वायुते रहित मल फूलपर मँवरे अचल होते हैं, जैसे चित्तरूपी अँक्रे आत्मपदकमलके रसको लेते हुये स्थित हो रहे, ब्रह्मको जानकर ब्रह्मरूप हुये ब्रह्मावि स्थित भये, जेते कछ निकट मृग थे, सो तृण भक्षणको त्यागिकरि अचल हो गये, अपर पशु पक्षी थे, सो सुनिकरि निस्पंद हो रहे, अरु स्त्रियां बालकन संयुक्त चपल थीं, सो सुनिकरि जडवत हो गई, पूर्व जो सुक्तिमान् मोक्ष उपायके श्रवणको सिद्धोंके गण आते थे, तिनने भी वडे फूलनकी वर्षा करी, तमाल कदंब पारिजात कल्प इत्यादिक दिव्य वृक्षों के जो फूल हैं, तिनकी देवता अरु सिद्धोंने वर्षा करी. नगारे, भेरी, शंख बजावने लगे, अरु वसिष्ठजीकी स्तुति करने लगे, बडे शब्द भये, तिनकरिकै दशों दिशा पूर्ण भईं.ऊपरते देवता सिद्धोंके नगारेके शब्द हुये, तिनकरि पर्वतोंविषे शब्भवउठे, अरु दिव्य फूलोंकी सुगंधि पसरी, मानौ पवन भी रंगित भया है, तव सिद्ध कहत भये ।। हे वसिष्ठजी ! हमने भी अनेक मोक्षउपाय श्रवण किये हैं, अरु उच्चार किये कहे हैं,परंतु जैसा तुमने कहा है, तैसान आगे श्रवण किया है, ने गाया है, न कहा है, तुम्हारे मुखारविंदते जो श्रवण किया है, तिसकरि हम परम सिद्धांतको जानत भये हैं, इसके श्रवणकारि पशु पक्षी मृग भी कृतार्थ भये हैं, अपर मनुव्योंकी वार्ता क्या कहिये वह तो कृतार्थही भये हैं, निष्पाप ज्ञानको पायकरि मुहावगे । वाल्मीकि उवाच ॥ हे साधो ! ऐसे हार वरि फूलोंकी वर्षा करी, अरु चंदनका लेप वसिष्ठजीको करे, जव इसप्रकार पूजा करि चुके, अरु कह रहे, तब अपर जो निकट बैठे थे, सो परम विस्मयको प्राप्त भये जो ऐसा परम उपदेश वसिष्ठजीने किया है, तव राजा दशरथ उठि ठाढा भूया, हस्त जोडिकरि वसिष्ठजीको नमस्कार किया, अंरु कहत भया । हे भगवन् ! षटू ऐश्वर्यासों संपन्न तुम्हारी कृपाकरि हम पूर्ण भये हैं, कैसे हम पूर्ण भये हैं ॥ हे भगवन् ! तुमने संपूर्ण शास्त्र श्रवण कराया है, तिसको सुनकर हम पूजन करने योग्य हैं, सो हे देव ! तुम्हारा पूजन किससाथ करें, ऐसा पदार्थ पृथ्वीविषे कोऊ नहीं,