पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५०

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राजप्रश्नोत्तरसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१८३१) हो भासता है, अरु तू पूछता है असत्ते बहुरि जगद कैसे उत्पन्न होता हैं, जो आपही न होवे, तिसते जगत् कैसे प्रगटै ॥ हे राजन् । असत् इसीका नाम है, जो जगत असत था, तिस श्रुतिने असत् कहा, जो आदि असत था सो असत्ता जगतकी कही है, आत्मा तौअसत नहीं होता,सबका शेषभुत आत्मा है,जब तिसविषे संवेदन फुरती है,तब ब्रह्म अलक्ष्यरूप हो जाता है, परंतु तिस संवेदनकै कुरणे अरु मिटनेविचे ब्रह्म ज्यका त्यों है, तिसका अभाव नहीं होता, जलविषे तरंग उपजते हैं, बहुरि लीन हो जाते हैं, परंतु तिनके उपजने मिटनेविषे जल ज्योंका त्यों है, तरंग तिसका आभास फुरते हैं, जैसे तू मनोराज्यकरि एक नगर कल्यै, बहुरि संकल्प छोडि देवे, तब संकल्परूप नगरका अभाव हो जाता है, परंतु सदा अविनाशी रहता है,जैसे स्वप्नकी सृष्टि उपजती भी है,अरु लीन भी हो जाती है परंतु अधिष्ठान ज्योंका त्यों है । हे राजन् ! जैसे रत्नका प्रकाश किरण उठती है, अरु लीन भी हो जाती हैं, परंतु रत्न ज्योंका त्यों होताहै, तैसे आत्मा विश्वके भाव अभावविचे ज्योंका त्यों होता है, तिसको आभास जगत् उपजता मिटता भासता है, उपजता है, तब उत्पत्ति भासती है, मिटता है तब प्रलय हो जाती है, परंतु उभय आभास हैं, जैसे वायु ऊरती है, तब भासती है, ठहर जाती हैं तब नहीं भासती, परंतु वायु एक है, जैसे आत्मा एकही हैं, औरणेका नाम उत्पत्ति हैं, अऊ रणेका नाम जगतकी प्रलय हैं, सो सर्व किंचनरूप है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे प्रश्नोत्तरद्वितीयो नाम द्विशताधिकपंचाशीतितमः सर्गः ॥२५॥ दिशताधिकषडशीतितमः सर्गः २८६. राजप्रश्नोत्तरसमाप्तिवर्णनम्। वसिष्ठ उवाच ॥ हे राजन् ! तुझने प्रयागके दो पुरुषका प्रश्न किया है, तिसका उत्तर सुन, जो उसका शत्रु बन गया है सो उसका पाप था, अरु