पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५१

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( १८३२) योगवासिष्ठ । जो उसका मित्र बन गया था, सो उसका पुण्य था, प्रयाग तीर्थ धर्मक्षेत्र था । हे राजन् ! पापरूप वासनाके अनुसार तिसको मृत्यु भासती है, अरु झुण्यरूपी जो मित्र है सो पापरूपी शत्रुको रोकता है, पुण्यरूपी तीर्थके बूल कारकै हृदयसों अल्परूपी पापबेगिकार भासता है, अरु जब उसको मृत्यु आती है, तब आपको मरता जानता है कि मैं सुआ हौं, भाई जन कुटुंबी रुदन करते हैं, जब अपनी ओर देखता है, तब जानता है कि मैं तौ सुआ नहीं, जब मृतक स्वर्गकी ओर देखता है, तब आपको मुआ जानता है, भाई जन रुदन करते हैं इसप्रकार उसको मरणा भासता है, भाईजुन जलावने चले हैं, अग्निविषे जलता देखता है, कि अग्निविषे इनने मुझको पाया है, मैं जलता हौं, जब बहुरि पुण्यकी ओर देखता है, तब जानता है कि मैं मुआ नहीं, जीता हौं, जब बहुरि पापकी ओर देखता है, तब जानता है कि मैं मुआ हौं, मुझको यमदूत ले चले हैं, यह परलोक यह इहाँ सुख दुःख भोगता है, जब बहुरि पुण्यकी ओर देखै तब जानै कि मैं सुआ नहीं जीता हौं, यह मेरे भाई जन बैठे हैं, यहाँ मेरा व्यवहार चेष्टा होता है इसप्रकार उभय अवस्थाको एक पुरुष देखता है, जैसे संकल्पपुरविषे उभय अवस्था देखे जैसे स्वप्ननगरविषे उभय अवस्था देखे, एकही पुरुष नानाप्रकारकी चेष्टा देखता है, कहूँ जीता देखता है, कहूँ मृतक देखता है, कहूँ व्यवहार, कहूं निर्व्यापार देखता है, इत्यादिक नानाप्रकारकी चेष्टा एकही पुरुषविषे होती है; तैसे एकही पुरुषको पुण्यपापकी वासनाकार जीना मरणा भासता है ॥ हेराजन् ! यह संपूर्ण जगत् संकल्पमात्र है, जैसा संकल्प दृढ होता है, तैसा रूप हो भासता है, परलोक जाना भी अपने वासनाके अनुसार भासता हैं, अरु जो कछु उसके निमित्त बांधव पुत्र देते हैं, सो पुत्र बांधव भी उसकी पुण्य पाप वासनाकरि स्थित भये हैं, जो कछु इसके निमित्त करते हैं, तिनकरि यह सुख दुःख नरक स्वर्ग भोगते हैं, अपर कोङ बाँधव पुत्र नहीं, उसकी वासनाही नानाप्रकारके आकारको धारिकरि स्थित भई है । हे राजन् ! सहसही चंद्रमाको