पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५२

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राजप्रश्नोत्तरसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१८३३) तुझने प्रश्न किया है, तिसका उत्तर सुन, सहस्र इसी आकाशविषे होते, अपनी अपनी वासनाकार कलासंयुक्त चंद्रमा ही विराजतेहैं, परंतु एकको दूसरा नहीं जानता, परस्पर अज्ञात हैं, जो अंतवाहक दृष्टिकार देखें, तिसको भासते हैं। हे राजन् । जो कोऊ ऐसे भावना करे, कि मैं उसके मंडलको प्राप्त होऊं तौ तत्कालही जाय प्राप्त होता है, जैसे एकही मंदिर विषे बहुत मनुष्य सोये, तिनको अपने अपने स्वप्नकी सृष्टि भासती है, सो अन्योन्य विलक्षण हैं, एककी सृष्टिको दूसरा नहीं जानता, तैसे एक आकाशविषे सहस्र चंद्रमा बनते हैं, जैसे इंद्र ब्राह्मणके दश पुत्र दश ब्रह्मा हो बैठे, तैसे जिसकी तीव्र भावना को करता है, सोई हो जाता है, जो कोऊ भावना करे, हम इसी मंदिरविषे सप्तद्वीपका राज्य करें, तब हो जाता है,काहेते कि अनुभवरूप कल्पवृक्ष हैं, जैसी तीव्र भावना तिसविषे होती है,तैसी हो भासतीहै,वरके वशते उस पुरुषको सप्तद्वीपका राज्य प्राप्त भया, अरु शापके वशते उसका जीव उसी मंदिरविषे रहा, तिस मंदिरहीविषे द्वीपका राज्य करत भया जैसे स्वप्नविषे राज्य करैहै, तैसे अपने मंदिर विषे अपनी संवेदनही सृष्टिरूप होभासती है, इसप्रकार जो एक स्त्रीकी भावना कारकै सहस्र पुरुष ध्यान लगाये बैठे हैं, कि हम तिसके भत्त होवें, सो भी हो जाते हैं ॥ हे राजन् । उनकी जो तीव्र भावना है, वही स्त्रीका रूप धारिकार उनको प्राप्त होवैगी,वह जानेंगे कि वही स्त्री हमको प्राप्त भई है,यह जगत् केवल संकल्पमात्र है, संकल्पते इतर कछु वस्तु नहीं, सब चिदाकाशरूप है, अपने अनुभवकरि प्रकाशता है, जैसे तिसविषे संकल्प फुरता है,तैसे हो भासता है,पृथ्वीजल,तेज,आदिक तत्वकोऊनहीं आत्मसत्ताही इसप्रकार स्थित है, सो परम शांत है, निराकार निर्विकार अद्वैत एकरूप है ॥ राजोवाच ॥ है मुनीश्वर ! जगदके आदि जो आत्मसत्ताथी सो किस आकाररूप देहविषे स्थित थी, देह विना तौ स्थित नहीं होती, जैसे आधारविना दीपक नहीं रहता, आधार होता है, तब तिसविषे जागता है, तैसे आत्मसत्ता किसविषे स्थित थी। वसिष्ठ