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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१००

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इक्कीसवाँ अध्याय
संजय का दौत्य कर्म

महाराज द्रुपद ने जो दूत पाण्डवों की ओर से धृतराष्ट्र के पास सन्धि के लिए भेजा था उसे कुछ सफलता नहीं हुई और दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ इस तीव्रता से होती रहीं जिससे सबको विश्वास हो गया कि आर्यावर्त की सारी वीरता और श्रेष्ठता का इसी लड़ाई में अन्त हो जाएगा। दोनों ओर के शूरवीर मत्त हाथी के समान झूमते फिरते थे। शंख, घड़ियाल, घटे आदि की ध्वनि से आकाश-पाताल गूंज रहे थे। घोड़ो की हिनहिनाहट से कान में पड़ी बात भी सुनाई नहीं देती थी। धन-दौलत के लालच से भाई भाई के खून का प्यासा हो रहा था। चचा भतीजों के प्राण का ग्राहक बन गया। भीष्म वचनबद्ध होकर उन भतीजों के विरुद्ध लड़ने पर उतारू हुए, जिनके लिए उनके चित्त में गाढ़ा प्रेम था और जिन्हें वह उचित मार्ग पर समझते थे। द्रोण विचारते थे कि इस लड़ाई में उनके सारे शिष्य आपस में लड़ मरने पर उतारू हुए हैं। यद्यपि वे दुर्योधन की सेना में थे पर अन्तःकरण से वे युधिष्ठिर के सहायक थे। वे जानते थे कि दुर्योधन का पक्ष अन्याय और अधर्म पर है और युधिष्ठिर सचाई पर है।

पर इन सबमें धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था। उसका अन्त:करण कहता था युधिष्ठिर सच्चा है, पर वह राजपाट का लोभ और बेटों के भय से लड़ाई को रोक रखने को शक्ति नहीं रखता था। उसे दिन-रात चैन न थी, उसे पहले ही आभास हो गया था कि इस लड़ाई में न तो बेटे बचेंगे और न भतीजे। सारा कुरुकुल नष्ट हो जाएगा और राजपाट, जिसके लिए ये लड़ रहे हैं, वह दूसरों की भोग्यभूमि होगा!

निदान बड़े सोच-विचार के पश्चात् उसने निश्चय किया कि लड़ाई से पहले युधिष्ठिर की धर्मप्रवृत्ति को अपील करें। उसने एक विद्वान् संजय नामक ब्राह्मण को दूत बनाकर युधिष्ठिर के दरबार में भेजा ताकि वह युधिष्ठिर को इस भयानक युद्ध से रोकने का उपदेश करे।

अतएव महाराज धृतराष्ट्र का भेजा हुआ दूत युधिष्ठिर के शिविर में आया।

युधिष्ठिर ने संजय का बड़ा आदर-सत्कार किया। जब युधिष्ठिर ने उससे आने का हेतु पूछा तो संजय बड़ी नम्रता से युधिष्ठिर को लड़ाई की बुराइयाँ सुनाने लगा और कहा कि केवल राजपाट के लिए लड़ना और अपने सम्बन्धियो का वध करना महापाप है। तुम्हें उचित है कि इस विचार को त्याग दो और यदि जान भी जाये, पर अपने भाइयों और सम्बन्धियों पर आक्रमण न करो। प्रथम तो इन दोनों पक्ष वालों का एक-दूसरे पर विजय पाना बड़ा कठिन है, फिर यदि तुम जीत भी गये तो इससे क्या सुख मिल सकता है। इसलिए ऐसे युद्ध से अपनी आत्मा को कलंकित मत करो और सन्धि कर लो