पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१०५

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कृष्णचन्द्र का दौत्य कम /105
 


परन्त वह संभलकर विनयपूर्वक अपना यथार्थ आशय समझाने लगा, "मैं किसी तरह भी दुर्योधन या उसके योद्धाओं से भय नहीं खाता। मुझे यदि विचार है तो केवल इतना ही है कि इस आपस की लड़ाई में सारे भारत की सन्तान नष्ट न हो जावे।" इस पर कृष्ण ने भीम को सम्बोधित किया और कहा, " मैं तुमको ताना नहीं देता। मैं तो तुमको याद दिलाता हूँ कि युद्ध से डरना क्षत्रिय का धर्म नहीं। मैं नहीं चाहता कि कायरता के कारण तुन अपने धर्म से विमुख हो बैठो। तुम धीरज धरो। मनुष्य से जितने यत्न हो सकते हैं उतना यत्न में सन्धि कराने के लिए करूँगा! परन्तु तुम समझ रखो कि मनुष्य की सारी युक्तियाँ सदा कृतकार्य नहीं होती। कुछ अवसरों पर ऐसा होता है कि मनुष्य भले के लिए काम करता है परन्तु उसका फल बुरा निकल आता है।

“इसलिए मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिए जो कुछ हो सकता है उसे वह करे। साथ ही उसका यह भी धर्म है कि वह केवल अपनी युक्तियो पर ही निर्भर न रहे, वरन् जो कुछ करता है उसे भगवान् के अधीन समझकर करे ताकि परमात्मा उसकी यक्तियों में उसे सफल करे। कृषिकार अपने खेत में हल चलाता है बीज बोता है उसे पानी से खीचता है, परन्तु जल बरसाना उसके कर्म से बाहर है। यह कर्म परमेश्वर के अधीन है। इसलिए जो काम हम कर उसे परमेश्वर के अधीन होकर करें, साथ ही परमात्मा पर विश्वास रखे कि यदि उसको कृपा होगी तो वह हमारी मनोकामना को अवश्य पूर्ण करेगा।"

अब कृष्ण युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन से विदा होकर नकुल और सहदेव से मिलने आये। नकुल ने तो यही कहा कि जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही कीजिएगा, परन्तु युवक सहदेव ने हाथ जोड़कर कहा, "मेरी आन्तरिक इच्छा तो यही है कि हमारे हाथों दुर्योधन का नाश हो। आप ऐसी कार्रवाई करें जिससे लड़ाई अवश्य हो।' सहदेव का यह कहना था कि सभा में चारों ओर से 'युद्ध-युद्ध' की ध्वनि गूंज उठी? सात्यांक ने कहा कि हमको चैन तब ही आएगा जब हम दुर्योधन का सिर अपने हाथ से कुचलेंगे। इतने में द्रौपदी भी आगे बढ़ी और अपने केश हाथ में लेकर कहने लगी, “हे कृष्ण! तनिक इधर भी देखो! दुर्योधन ने मेरे केश पकड़कर मुझे सभा के बीच अपमानित किया था। उस समय अर्जुन और भीम की वीरता भी कुछ काम नहीं आई, न किसी ने यह विचार किया कि यह महाराज द्रुपद की पुत्री है, महाराज पाण्डु की बहू, पाण्डवो की पटरानी, धृष्टद्युम्न की बहन और कृष्ण की मित्र है। क्या आप नहीं जानते कि अपराधी का अपराध क्षमा करना महापाप है। जो पुरुष दण्डनीय है उसके दण्ड को क्षमा करना स्वयं एक अपराध है। यदि पापियों की इस संसार में वृद्धि हुई और उनको राजा-महाराजा दण्ड देने से मुख मोड़ने लगे तो इसका परिणाम बड़ा भयानक होगा। हे कृष्ण, क्य दुर्योधन पर दया करना उचित है? मै आपसे विनयपूर्वक कहती हूँ, यदि आपको मेरी मर्यादा का तनिक भी विचार है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ नम्र न हों। उन्हे दण्ड देना ही धर्म है। भीम और अर्जुन ने यदि आज कायरता पर कमर बाँध ली है और चुप बैटे है तो मेरा भाई और पिता उनसे बदला लेने को तैयार हैं।" इतना कहकर द्रौपदी रो