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138 / योगिराज श्रीकृष्ण
 

प्रमाण हैं जिनमें उपदेश करने वाले को ऐसा (अवतार का) पद दिया गया हो। जहाँ तक हमने छानबीन करके मालूम किया है उपनिषदों में केवल एक ऋषि[१] के वचनों में इस तरह का वर्णन पाया जाता है और वह भी इतना स्पष्ट और बहुतायत से नहीं, जैसा भगवद्‍गीता में। भगवद्‍गीता का क्रम प्रकट करता है कि भिन्न-भिन्न समय के पंडितों की रचना से यह पुस्तक भरी है। हम स्वयं गीता की उर्दू टीका प्रकाशित करने की इच्छा रखते हैं[२] इसलिए उस पुस्तक में इस विषय पर अधिक विस्तार से लिखेंगे। अतः यह निश्चित है कि गीता कृष्ण की बनाई हुई नहीं है। गीता के प्रमाण से कोई यह नहीं कह सकता कि कृष्ण स्वयं अवतार होने का दावा करते है।

क्या कृष्णा के समकालीन लोग उन्हें ईश्वर का अवतार समझते थे?

युधिष्ठिर, भीष्म, अर्जुन, द्रोण, दुर्योधन, जरासंध और अन्य समकालीन लोगों का कृष्ण से व्यवहार भी यही प्रकट करता है कि उनमें से कोई भी उन्हें परमेश्वर का अवतार नहीं समझता था। ये लोग कृष्ण महाराज को केवल मनुष्य समझकर ही उनसे वैसा बर्ताव करते रहे। यदि युधिष्ठिर कृष्ण को परमेश्वर का अवतार मानते होते तो उनको जरासंध के मुकाबले में भेजने से कदापि संकोच न करते। यद्यपि महाभारत का रचयिता स्पष्ट लिखता है कि महाराज युधिष्ठिर ने कृष्ण की प्रार्थना को बड़े संकोच से स्वीकार किया और जरासंध और शिशुपाल आदि कृष्ण को यदि परमेश्वर का अवतार समझते तो वे उनसे कदापि शत्रुता नहीं करते। भीष्म और द्रोण भी कभी उनके सामने लड़ने को नहीं खड़े होते। आश्चर्य तो यह है कि गीता के उपदेश को सुनने के बाद भी अर्जुन पूरे दिल से भीष्म और द्रोण के विरुद्ध नहीं लड़ा। तब श्रीकृष्ण को विराट रूप धारण कर अर्जुन को उभारने की आवश्यकता पड़ी। यदि वर्तमान में उपलब्ध महाभारत को सही मान लिया जाय तो उसके अनुसार अर्जुन ने कृष्ण और भीष्म की इस सलाह को भी स्वीकार नहीं दिया कि युधिष्ठिर द्रोण को हतोत्साहित करने के लिए यह प्रसिद्ध करे कि अश्वत्थामा मर गया। परन्तु अर्जुन ने इस प्रकार की धोखेबाजी पर बहुत घृणा प्रकट की थी। तात्पर्य यह कि उन घटनाओं से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण के समकालीन सखा लोग भी उनको परमेश्वर का अवतार नहीं समझते थे।

क्या कृष्ण महाराज धर्म-सुधारक थे?

यही नहीं, हमको तो यह भी निश्चय नहीं होता कि धर्म का उपदेश या धर्म-प्रचार करना कभी श्रीकृष्ण महाराज ने अपना उद्देश्य बनाया हो। प्रथम तो उनका राजवंश में जन्म लेना ही यह बताता है कि वे धर्म के उपदेशक या धर्म-प्रचारक कदापि नहीं थे। यह ठीक है कि उस समय राजर्षि का पद बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था और ऐसे ऋषि आचार्य भी होते थे तथापि ब्रह्मर्षि

 

  1. वामदेव ऋषि जिसने परमात्मा के साक्षात्कार की स्थिति में ऐसे विचार व्यक्त किया थे
  2. यह पुस्तक 'दि मैसेज ऑफ भगवद्‍गीता' शीर्षक से 1908 में इण्डियन प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित हुई