विष्णुपुराण में लिखा है कि जब देवकी का विवाह वसुदेव से हो चुका और वधू को वर के घर पहुँचाने के लिए रथ पर सवार कराया गया तो कंस उसके सारथी बने। चलते-चलते आकाशवाणी हुई, "रे मूर्ख, तू किस भ्रम में पड़ा है। जिस लड़की को तू रथ पर बैठाकर उसके श्वसुर के घर ले चला है उसी के उदर से एक पुत्र उत्पन्न होगा जिसके हाथ से तू मारा जाएगा।" यह बात कंस को आकाशवाणी अथवा किसी योगी पुरुष के मुख से विदित हो गई कि यदि मुझे अपने राजपाट में कुछ आशंका हो सकती है तो वह इस लड़की की सतान से ही, क्योंकि उसके दादा की सतान में से और कोई उसके स्वत्व में टॉग अड़ाने वाला नही था। इस विचार के उत्पन्न होते ही उसकी पापिष्ठ आत्मा बड़ी बेचैन हुई। उसे अपनी मृत्यु चारों ओर आँखों के सामने दीख पड़ने लगी। अब इसके अतिरिक्त उसे और कुछ न सूझा कि उस अज्ञान बालिका का अन्त कर दिया जाय जिससे उसकी ओर से कुछ शंका न रहे।
सत्य है, पापी अपने को बहुत बलवान और कठोर हृदय समझता है, पर वास्तव में उसका अभ्यन्तर पापों से खोखला होकर बलहीन हो जाता है। तनिक भय या उसकी छाया उसे भयभीत तथा शान्तिरहित कर देती है। उसके सारे पाप और सारी अनीतियाँ सदेह उसके सामने आ खड़ी होती है और नाना प्रकार से उसको डराने लगती हैं। वे आत्माएँ, जिन्होंने उससे किसी प्रकार की पीड़ा पाई है, भयानक रूप धारण कर उसके नेत्रों के सामने आ विराजती हैं और सोतेजागते उसे भय दिलाती हैं। उसकी अवस्था उस चोर के समान हो जाती है जो अपनी परछाई से डर उठता है या तनिक सा खटका पाकर काँपने लगता है। आगे चलकर पुराण लेखक लिखता है, “कंस के चित्त में यह भाव उठते ही उसे विश्वास हो गया कि अब मेरा अन्त आ पहुँचा । मृत्यु से बचने के लिए उसने यह उपाय सोचा कि जैसे भी हो सके देवकी का वध कर देना चाहिए। यह विचार आते ही उसने रथ को रोक दिया। खड्ग ले देवकी की ओर लपका और चाहता था कि एक ही हाथ में उसका सिर धड़ से जुदा कर दे, पर वसुदेव ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसे भगिनीवध के पाप से बचाया!
कंस क्रोधान्ध होकर स्त्री पर वार करने को उठा था, पर जब चारों ओर से हाहाकार मच गया और उसकी निन्दा होने लगी तो उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसने वसुदेव से यह प्रतिज्ञा कर ली कि वह देवकी की होने वाली संतान को उसके हवाले कर दे। इसके बाद ही उसने स्त्रीवध,