पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/७७

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द्रौपदी का स्वयवर और श्रीकृष्ण की पाडुपुत्रों से भेंट/77
 


अर्जुन उठा और उठते ही इस फुरती से बाण मारा कि वह सीधा निशाने पर जा लगा। बस फिर क्या था, द्रौपदी ने आगे बढ़कर फूलों का हार उसके गले में पहना दिया। यह देखकर सारी सभा में कालाहल मच गया। सारे राजा-महाराजा कहने लगे कि स्वयंवर में ब्राह्मण राजकन्या को नहीं वर सकता। इस संघर्ष में अर्जुन और भीम ने जो हाथ दिखाया, जिससे श्रीकृष्ण ने उन्हे पहचान लिया और बीच में पड़कर यह निर्णय करा दिया कि इस ब्राह्मण ने नियमानुसार स्वयंवर जीता है, इसलिए न्याय और नियम के अनुसार द्रौपदी इसकी हो चुकी। श्रीकृष्ण का प्रभाव इतना प्रबल था कि इस फैसले पर सबके सब चुप रहे, और वहाँ से चल दिये। अर्जुन अपने भाइयों सहित द्रौपदी को लेकर अपनी माता के पास गए। फिर कृष्ण भी वहाँ पहुँचे। युधिष्ठिर की माता कुन्ती, कृष्ण की बुआ थी। एक दूसरे को पहचानकर तथा कुशल-क्षेम पूछने पर पाण्डुपुत्र कृष्ण से पूछने लगे, "आपने हमको किस तरह पहचाना?" इसके उत्तर में कृष्ण ने कहा कि अग्नि छिपाये नही छिप सकती। आपने जो विचित्र कार्य आज द्रुपद की सभा में किया है, उसी ने आप सबका परिचय दे दिया। पाण्डवों को छोड़कर और किसमें सामर्थ्य है जो ऐसा खेल खेलता।