पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१६

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हमारा लक्ष्य
 

ऊर्ध्वस्थित या अन्तःस्थित आत्माका ध्यान करता है, अपने आपको भगवत्प्रभावके अधीन कर देता है, ऊर्ध्वस्थित भागवत शक्ति और उसके कार्यकी ओर अपने-आपको खोल देता और हृदयस्थित भागवत सत्ताके अभिमुख होता है, और इन बातोंके विरुद्ध जो कुछ है उसका परित्याग करता है। श्रद्धा, अभीप्सा तथा शरणागतिसे ही यह आत्मोद्घाटन बनता है।

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यहाँ किसी प्रकारकी सृष्टिके लिये कोई स्थान है तो वह एकमात्र भागवत विज्ञानका ही अवतरण है―भागवत सत्यका अवतरण, केवल मन और प्राणोंमें नहीं प्रत्युत शरीर और इस जड प्रकृतिम भी। हमारा उद्देश्य अहं- भावके विस्तारके प्रतिबन्धकोको हटाना अथवा मानव मनकी कल्पनाओं या अहंता-ममताकी प्राणवासनाओंकी स्वार्थपूर्तिके लिये खुला मैदान छोड़ देना या आश्रय प्रदान करना नहीं है। यहाँ कोई भी इसलिये नहीं है कि ‘जो मन भावे करे’ या किसी ऐसे संसारको रचे जिसमें हमलोग अपनी मनमानी कर सकें। यहाँ तो हमें वही करना है जो भगवान् चाहते हैं और ऐसा संसार रचना है जिसमें भगवदिच्छा स्वान्तर्निहित सत्यको प्रकट करे― किसी मानव अज्ञानसे वह भगवदिच्छा विकृत न हो या

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