पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१७

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योगप्रदीप किसी प्राणवासनासे विपर्यस्त या अन्यथाकृत न हो। विज्ञानके इस योग साधकका जो काम करना होता है वह कोई उमका अपना काम नहीं है जिसपर वह अपनी शन लाद मके; प्रत्युत यह भगवन्कर्म है और इसे भगवनिर्दिष्ट नियमोंसे ही सम्पादन करना होगा । हमारा योग हमारे अपने लिये नहीं, भगवान के लिये है । हम जो कुछ व्यक्त करना चाहते हैं वह हमाग वैयक्तिक व्यक्ती- करण नहीं है,-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र, सर्वबन्धविनिमुक्त अर भावका भी व्यक्तीकरण नहीं है, यह स्वयं भगवानका व्यक्त होना है । हमारी मुक्ति, हमारी ससिद्धि और हमारी पूर्णता ना भगवानके व्यक्त हानेका ही एक परिणाम और अंग मात्र है और सा भी किसी अहंभावसे नहीं, किमी अहंता-ममताक स्वार्थक लिये भी नहीं। यह मुक्ति, प्रसिद्धि, पूर्णता भी हमारे अपने लिय नहीं, भगवानक ठिय है । , इस योगका अर्थ कंवल ईश्वरकी प्राप्ति नहीं, बल्कि वह आभ्यन्तर और बाह्य जीवनका परिपूर्ण उत्सर्ग और आमूल परिवर्तन है जिससे उसम भगवच्चैतन्य व्यक्त हो और वह स्वयं भगवत्कर्मका एक अंग हो। इसके लिये ऐसे आभ्यन्तरिक अभ्यासकी आवश्यकता है जो केवल सदाचार और कृच्छ चान्द्रायणादि कायिक तपोंसे बहुत अधिक कड़ा [६]