पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१९

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योगप्रदीप अपरा प्रकृतिको ऊपर उठा लेने और उसे विज्ञानकी शक्तिसे बदलकर दिव्य बनानेमें ममर्थ होगी। पृथ्वी विकासक्रमका भौतिक क्षेत्र है और मन-बुद्धि और प्राण, विज्ञान, सच्चिदानन्द तत्त्वतः इस भौतिक चैतन्यमें भी छिपे हुए हैं । पर विकासक्रममें सबसे पहले भौतिक जगत्की रचना होती है; तत्पश्चात् उसमें प्राण- लोकसे प्राण आकर पृथ्वीके प्राणतत्त्वको आकृति, महति और गति प्रदान करता है और वनस्पतिजाति तथा पशु- जाति उत्पन्न करता है; तब मनोमय लोकसे मन उतरकर मनुष्यका सर्जन करता है । अब मन-बुद्धिके परे जो विज्ञान है वह उतरनेवाला है, इमलिये कि विज्ञानमय जाति उत्पन्न हो। "

मशक्तिक आत्मोपलब्धिके लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है कि पुरुष प्रकृतिके वशसे मुक्त हो; बल्कि यह आवश्यक है कि पुरुषकी अपग प्रकृति और उसकी अन्ध शक्तियोंके प्रति जो स्नेहासक्ति है वह, वहाँसे हटाकर, पग भागवती शक्ति श्रीमाताके समर्पित हो। अपरा निम्न प्रकृतिको और उसकी यन्त्रित अन्ध शक्तियोंको माता समझ लेना भूल है । यह प्रकृति तो यन्त्रसामग्री मात्र है जो विकासशील अज्ञानको गति दनेके लिये प्रस्तुत की गयी है। जैसे मनोऽभिमानिनी, प्राणा- [ ८ ]