पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३१

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. योगप्रदीप हैं । योगसाधनाके मूलारम्भका ही यह एक भाग है कि हम अपनी प्रकृतिकी इस विलक्षण विविधताको समझें और उन विभिन्न शक्तियोंको देखें जो इस प्रकृतिको चलाती हैं तथा इसपर ऐसा अधिकार प्राप्त करें कि ज्ञानपूर्वक हम इन शक्तियोंको स्वयं चला सकें। हमारे कई घटकावयव हैं; हमारा चैतन्य, हमारा विचार, संकल्प, वेदना, प्रतीति, कर्म इन सबका जो संघातरूप कार्य है उसमें इस प्रत्येक अवयवका कुछ-न-कुछ भाग है। पर इन सबके उद्गम- स्थान और इनके स्रोतमार्गका हमें पता नहीं रहता; इन सबका जो सम्मिलित संकरसा परिणाम ऊपर-ही-ऊपर देखने में आता है उसीकी हमें खबर रहती है और इसलिये इस विषयमें हम जो कुछ उपाय या अदल-बदल करेंगे वह संदिग्ध ही होगा, इसके सिवा हम और कुछ भी नहीं कर सकते । आधारके जो अंश आत्मज्योतिकी ओर उन्मुख हो चुके हैं उन्हींसे आगेका अनुसन्धान और उपाय हो सकता है। ऊर्ध्वस्थित भगवच्चैतन्यसे ज्योतिको अपने अन्दर आवाहन करना, अन्तःस्थित हृत्पुरुषको बाहर ले आना और अभीप्साकी ऐसी ज्योति जगाना कि उससे बाह्य मन अध्यात्मजागरणमें जाग उठे और प्राण-पुरुषको प्रज्वलित कर दे, यही बाहर निकलनेका रास्ता है । योगका अर्थ है परमात्माके साथ संयोग-विश्वके परे [२०]