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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६२

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

अवस्थामें, क्षेत्र प्रति-क्षेत्रमें, क्रमशः प्रकृतिके एक-एक अंगमें उसका उपयोग न किया जाय।

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साधनाकी प्राथमिक अवस्थामें—और 'प्राथमिक' से मेरा मतलब किसी छोटे अंशसे नहीं है—प्रयत्न अपरिहार्य है। समर्पण तो सही, पर समर्पण कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक दिनमें हो जाय। मनके अपने भाव और विचार हुआ करते हैं और मन उनसे चिपका रहता है; मानव प्राण समर्पण में बाधक होता है, क्योंकि प्राण जिसे समर्पण समझता है वह संशययुक्त आत्मदान है और उसमें प्राणकी अपनी वासना भी होती है; भौतिक चेतना पत्थरकी तरह है और यह जिसे समर्पण समझती है वह प्रायः जडत्व से अधिक और कुछ नहीं होता। केवल एक हृत्पुरुष ही है जो जानता है कि समर्पण कैसे करना होता है और आरम्भमें यह हृत्पुरुष तो प्रायः बहुत कुछ छिपा ही रहता है। जब हृत्पुरुष जागता है तब यह एकाएक और सच्चे स्वरूपसे सर्वात्मना समर्पण करा सकता है; क्योंकि फिर अन्य अङ्गके सम्बन्ध में जो कुछ भी कठिनाई होती है उसका उपाय तुरत हो जाता है और वह कठिनाई रहने नहीं पाती। पर जबतक यह नहीं होता तबतक साधकका अपने पुरुषार्थसे प्रयत्न करना अपरिहार्य है। अथवा यों

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