पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६३

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योगप्रदीप
 

समझो कि ऐसा प्रयत्न तबतक आवश्यक होता है जबतक कि भागवत शक्ति उत्प्लावित होकर नीचे न उतर आवे और साधना अपने हाथमें न ले ले―साधनाका अधिकाधिक भाग स्वयं ही न करने लग जाय जिसमें साधकके अपने प्रयत्नसे करनेका कार्यभाग बहुत ही थोड़ा शेष रहे―पर तब भी, प्रयत्न न सही पर अभीप्सा और सावधानता तो आवश्यक है ही जबतक कि अन्तःकरण, इच्छा, प्राण और शरीरको भागवत शक्ति पूर्णतया अधिकृत न कर ले। मैं समझता हूँ, इस विषयका विवेचन मैंने 'माता' पुस्तकके किसी अध्यायमें किया है।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूर्ण समर्पणकी सच्ची और बलवती इच्छाके साथ ही योगारम्भ करते हैं। ये वे लोग हैं जो हृत्पुरुषसे अथवा उस सुस्पष्ट और उबुद्ध मानस इच्छासे नियन्त्रित होते हैं जो जहाँ एक बार यह मान लेती है कि समर्पण ही साधनाका सिद्धान्त है वहाँ फिर उसके सम्बन्धमें और कोई बेमतलबकी बात नहीं चलने देती और जीवके अन्य अङ्गोको अपने रास्तेपर ले आनेमें ही लग जाती है। यहाँ भी प्रयत्न मौजूद है; पर यह इतना सन्नद्ध और स्वयंस्फूर्त होता है तथा इसमें यह भाव कि हमारे पीछे कोई महती शक्ति है, इतना प्रबल और स्वाभाविक होता है कि साधकको प्रायः भान ही नहीं रहता कि मैं कुछ भी प्रयत्न कर रहा

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